Social Justice

भारतीय जेल व्यवस्था आज भी जातिवाद से ग्रस्त है

एक ऐसी व्यवस्था की मौलिक छान-बीन जहां कुछ जीवन औरों की अपेक्षा ज़्यादा सज़ा पाने के लिये अभिशप्त हैं।
"बहुत से क़ैदियों ने, जिनसे सम्पर्क किया गया, शुद्ध रूप से जन्म आधारित जाति के आधार पर, उन्हें अलगाव में रखे जाने और निम्नतर स्तर के कामों में धकेले जाने के अपने अनुभवों को साझा किया।"
"बहुत से क़ैदियों ने, जिनसे सम्पर्क किया गया, शुद्ध रूप से जन्म आधारित जाति के आधार पर, उन्हें अलगाव में रखे जाने और निम्नतर स्तर के कामों में धकेले जाने के अपने अनुभवों को साझा किया।"

यह आलेख, जो ऋंखला 'बार्ड - दि प्रिजन प्रोजेक्ट' का हिस्सा है, पुलित्ज़र सेंटर ऑन क्राइसिस रिपोर्टिंग की सहभागिता से प्रस्तुत किया गया है।

नयी दिल्ली/ मुंबई/ बंगलोर : अलवर ज़िला जेल में अपने पहले दिन अजय कुमार* सबसे बुरे के लिये खुद को तैयार कर रहा था। उत्पीड़न (टार्चर), सड़ा खाना, हाड़ कँपाती ठंढ, और कठोर श्रम - बालीवुड ने उसे जेलों की भयावह सच्चाइयों से परिचित करा दिया था। जैसे ही उसे लोहे के दरवाज़े से अंदर लाया गया, अंडरट्रायल (UT) सेक्शन में तैनात पुलिस कांस्टेबल ने उससे कड़क कर पूछा "गुनाह बताओ"।

अभी अजय के मुँह से मुश्किल से कुछ निकल पता कि कांस्टेबल ने अगला सवाल दागा "कौन जाति"? सकपकाया अजय रुका और फिर हिचकिचाते हुए बोला, "रजक"। उसने आगे पूछा, "बिरादरी बताओ"। "अनुसूचित जाति" के एक हिस्से के रूप में अजय की जातिगत पहचान, जो उसके जीवन का अब तक का सबसे अप्रासंगिक हिस्सा थी, अब उसके 97 दिन के जेल जीवन को निर्धारित करने जा रही थी।

अजय को, जो 2016 में मुश्किल से 18 वर्ष का रहा होगा, टॉयलेट की सफ़ाई, वार्ड के बरामदे में झाड़ू लगाने, और पानी लाने, बाग़वानी जैसे अन्य निम्न स्तर की माने जाने वाली खटनी करनी होती थी। उसका काम हर दिन भोर होने से पहले शुरू होता था और 5 बजे शाम तक चलता रहता था।वह कहता है : " मैंने सोचा यह सब हर नये क़ैदी को करना पड़ता होगा।मगर क़रीब एक हफ़्ते में ही यह साफ़ दिखने लगा कि केवल कुछ चुने हुओं को ही टॉयलट सफ़ाई के काम पर लगाया जाता था "

व्यवस्था बिल्कुल स्पष्ट थी - जाति पिरामिड के तल पर रहने वाले सफ़ाई का काम करेंगे ; जो ऊँची जाति के थे, वे चौका या लीगल डाक्यूमेंटेशन विभाग का काम देखेंगे और जो धनी व प्रभावशाली थे, वे कुछ नहीं करते थे ; वे बस इधर-उधर मटरगश्ती करते फिरते थे। इन व्यवस्थाओं का उस अपराध से कोई लेना-देना नहीं था जिसके लिये किसी को जेल हुई थी। उसने बताया, "सब कुछ जाति के आधार पर था"।

उसे जेल गये चार साल के आस-पास हो रहा था। उस पर उसके नियोजक ने चोरी का आरोप लगाया था। "वर्कशॉप से नये मंगाये गये स्विचबोर्डों के बक्से ग़ायब थे।मैं सबसे नया कर्मचारी था, और सबसे छोटा भी।मालिक ने मुझे पकड़ना तय किया।उसने पुलिस बुला कर मुझे उनके हवाले कर दिया।" : वह याद करता है।

97 दिन जेल में बिताने और फिर अलवर मेजिस्ट्रेट के कोर्ट में लम्बे मुक़दमे के बाद अंततः अजय को निर्दोष मानते हुए बरी कर दिया गया। मगर अब अलवर में उसके लिये कोई गुंजाईश नहीं थी ; वह जल्दी ही दिल्ली चला आया। अब बाइस वर्ष का अजय सेंट्रल दिल्ली के एक मॉल में इलेक्ट्रिशियन के तौर पर काम करता है।

अजय कहता है कि जेल के उस छोटे से प्रवास ने उसकी ज़िंदगी को कई तरह से बदल दिया। "रातों-रात मुझे अपराधी घोषित कर दिया गया। इसके अलावा मेरी हैसियत एक छोटी जात वाले के रूप में समेट दी गयी।" अजय का परिवार मूलतः बिहार के बाँका ज़िले के शंभूगंज क़स्बे का रहने वाला था, जो 1980 के दशक में राष्ट्रीय राजधानी चला आया था। उसके पिता दिल्ली में एक कूरियर फ़र्म में और भाई एक राष्ट्रीकृत बैंक में सुरक्षा गार्ड का काम करते हैं। " हम धोबी, या कपड़ा धोने वाली जाति से हैं। मगर मेरे परिवार में से किसी ने भी जाति से जुड़ा धंधा नहीं किया है। मेरे पिता ने जानबूझ कर शहर का जीवन चुना, जैसे वह गाँव की जातिगत सच्चाइयों से किसी भी तरह से निकल भागना चाहते थे।"

मगर जेल के अंदर, अजय बताता है, उसके पिता की सारी कोशिशें व्यर्थ हो गयीं। उत्तरी दिल्ली में अपनी किराये की बरसाती में बैठे हुए अजय अपनी आपबीती साझा करता है - "मैं एक इलेक्ट्रिशियन के रूप में प्रशिक्षित था। मगर जेल के अंदर इसका कोई मतलब नहीं था। मैं अब बस एक बंद जगह में सफ़ाई वाला था।"

वह याद करता है कि सबसे तकलीफ़देह तब था, जब एक दिन जेल के गार्ड ने उसे बुला कर जाम हुए सेप्टिक टैंक की सफ़ाई के लिये कहा। पिछली रात से जेल वार्ड के टॉयलेट ओवरफ्लो कर रहे थे। मगर जेल के अधिकारियों ने इसे ठीक करने के लिये बाहर से किसी को नहीं बुलाया।" मैं सन्न रह गया कि (जेल के अधिकारी) मुझसे यह काम कराना चाहते थे। मैंने कमजोर प्रतिवाद करते हुए कहा कि मैं यह काम करना नहीं जानता था। मगर उसने कहा कि वहाँ मुझसे दुबला और छोटी उम्र का और कोई नहीं था। उसने अपनी आवाज़ ऊँची की और मैं अंदर घुस गया।" अजय को अपना कच्छा छोड़ कर सारे कपड़े उतारने पड़े, ज़ोर लगा कर टैंक का ढक्कन खोलना पड़ा, और अपने शरीर को बज बजाते मानव मल-मूत्र में धँसा देना पड़ा।"मुझे लगा मैं उस सड़ती दुर्गंध से मर जाऊँगा।मुझे ऊबकाईयाँ आने लगीं। गार्ड को समझ नहीं आया कि वह क्या करे और उसने दूसरे क़ैदियों से मुझे खींच कर बाहर निकालने को कहा।"

शारीरिक रूप से मानव मल-मूत्र की सफ़ाई (manual scavenging) तीन दशक पहले ग़ैर क़ानूनी घोषित की जा चुकी थी। 2013 में "दि प्रोहिबिशन ओफ़ एमपल्यायमेंट ऐज मैन्यूअल स्कवेंजर्स एंड देयर रीहेबिलिटेशन ऐक्ट" क़ानून को संशोधित करते हुए सीवर और सेप्टिक टैंक की सफ़ाई के लिये मनुष्यों के लगाये जाने को "मैन्यूअल स्केवेंज़िंग" के अंतर्गत रखा गया। जेल गार्डों ने जो कुछ अजय को करने के लिये मजबूर किया वह एक संज्ञेय अपराध है।

वह कहता है, " जब भी मैं उस घटना के बारे में सोचता हूँ,मेरी भूख मर जाती है।" जब भी वह सड़क पर किसी क्लीनर अथवा स्वीपर को देखता है, सिहर उठता है। वह कहता है "उन्हें देखना मुझे मेरी अपनी असहायता की याद दिलाता है।"

यह सुन कर चाहे जितना धक्का लगे, अजय का कोई अपवाद-असामान्य मामला नहीं है। वह कहता है कि जेल में सब कुछ व्यक्ति की जाति के आधार पर तय किया जाता है। वह जेल में बिताये जा रहे जीवन को देखने मात्र से उनकी जाति बता सकता था। अजय जेल में विचाराधीन क़ैदी था, और सज़ायाफ्ता क़ैदियों से अलग, विचाराधीन क़ैदी जेल में काम करने से मुक्त थे। मगर विचाराधीन क़ैदियों की जेल में, जहाँ सजा पाये हुए लोग गिने चुने ही थे, अजय जैसे बंदियों से मुफ़्त का श्रम कराया जाता था।

जब नियम खुद ही जातिवादी हों

वस्तुतः जाति आधारित श्रम कई राज्यों के जेल मैन्यूअलों में स्वीकृत है। परवर्ती 19वीं सदी के औपनिवेशिक़ नियमों में शायद ही कोई संशोधन हुए हों, और जाति आधारित श्रम इन मैन्यूअलों का अन छुआ हिस्सा है। हालाँकि हर राज्य के अपने-अपने जेल मैन्यूअल हैं, मगर वे अधिकांशतः दि प्रिजन ऐक्ट,1894 पर आधारित हैं। इन जेल मैन्यूअलों में प्रत्येक गतिविधि का विस्तार से उल्लेख है - भोजन की माप-तोल और प्रति क़ैदी जगह से ले कर "अराजक लोगों" (disorderly ones) के लिये दंड तक।

अजय का अनुभव राजस्थान जेल मैन्यूअल में लिखे से मेल खाता है। जब कि खाना बनाना और चिकित्सीय देखभाल जेल में ऊँची जाती का काम माना जाता है, झाड़ू लगाना और साफ़-सफ़ाई सीधे नीची जाति वालों के ज़िम्मे लगाया जाता है।

भोजन पकाने वाले विभाग के लिये मैन्यूअल कहता है :

" अपने वर्ग से कोई ब्राह्मण या पर्याप्त ऊँची जाति का हिन्दू क़ैदी कुक के रूप में नियुक्ति की पात्रता रखता है।"

इसी तरह मैन्यूअल का भाग 10, शीर्षक "दोषसिद्धों का नियोजन, निर्देश और नियंत्रण" ("Employment, Instructions, and Control of Convicts"), और साथ ही साथ प्रिजन ऐक्ट की धारा 59(12) के अंतर्गत बने नियम कहते हैं :

"स्वीपरों का चयन उनमें से किया जायेगा, जो जिस ज़िले में वे रहते हैं उसकी परंपरा अथवा अपने किये जाने वाले पेशे के अनुसार जेल से बाहर जाने पर, स्वीपर का काम करते हैं। अन्य कोई भी अपनी स्वेच्छा से इस काम को करने का प्रस्ताव कर सकता है,मगर किसी भी सूरत में कोई ऐसा व्यक्ति,जो पेशे से स्वीपर नहीं है,इस काम को करने के लिये मजबूर नहीं किया जायेगा।"

मगर,यह नियम "स्वीपर समुदाय" के व्यक्तियों से सहमति के मामले में मौन है।

ये नियम मूलतः आदमियों की विशाल आबादी को ध्यान में रखते हुए लिखे गये थे, और उन राज्यों में, जहां औरतों के लिये अलग से नियम नहीं बनाये गये हैं, औरतों की जेलों में भी दोहरा दिये गये हैं। "समुचित"(appropriate) जाति समूहों से महिला क़ैदियों के अभाव में, राजस्थान का जेल मैन्यूअल कहता है,"......वेतनभोगी कर्मचारी द्वारा चुने हुए मर्द सज़ायाफ्ता मेहतर इस शर्त पर बाड़े (enclosure) के अंदर लाये जा सकते हैं ..... " । मेहतर एक जाति नाम है,और उन्हें इंगित करता है जो जाति के पेशे के तौर पर मैन्यूअल स्केवेंज़िंग में लगे हुए हैं।

मेडिकल कर्मचारियों के बारे में मैन्यूअल कहता है : "अच्छी जातियों के लम्बी अवधि की सजा काट रहे दो या अधिक बंदियों को प्रशिक्षित कर के अस्पताल परिचारकों (attendants) के रूप में काम पर रखा जाना चाहिये।"

सभी राज्यों में जेल मैन्यूअल और नियम उन कामों को निर्दिष्ट करते हैं जिन्हें रोज़ के आधार पर पूरा कराया जाना है। श्रम विभाजन मोटे तौर पर "शुद्धता-अशुद्धता" के द्वैध (dichotomus) पैमाने पर किया जाता है, ऊँची जातियों के लोगों से केवल वही काम लिये जाने हैं जिन्हें "शुद्ध"(pure) माना जाता है और वे जो जाति संस्तरण में नीचे हैं, "अशुद्ध" (impure) काम लिये जाने के लिये हैं।

बिहार का मामला देखते हैं। "भोजन बनाना" (Preparation of food) शीर्षक का सेक्शन इस लाइन के साथ शुरू होता है : "भोजन की गुणवत्ता, ढंग से तैयारी और पका कर पूरी मात्रा में दिया जाना समान महत्व के हैं।" आगे जेल में माप-तौल और पकाने की तकनीकों के बारे में मैन्यूअल कहता है : "कोई भी "अ श्रेणी" का ब्राह्मण या काफ़ी ऊँची जाति का हिन्दू क़ैदी कुक के रूप में नियुक्त होने की पात्रता रखता है।" मैन्यूअल और स्पष्ट करता है "जेल में कोई भी क़ैदी, जो इतनी ऊँची जाति का हो कि वह विद्यमान कुकों द्वारा पकाया गया खाना नहीं खा सकता हो, उसकी कुक के रूप में नियुक्ति की जायेगी और उसी से सभी आदमियों के लिये भोजन बनवाया जायेगा। वैयक्तिक रूप से किसी भी सज़ायाफ्ता क़ैदी को किसी भी परिस्थिति में खुद के लिये भोजन पकाने की अनुमति नहीं दी जायेगी, जब तक वे ख़ास तौर से ऐसी श्रेणी के बंदी न हों, जिन्हें नियमों के अंतर्गत ऐसा करने की अनुमति हो।"

यह केवल काग़ज़ पर ही नहीं है

ये केवल ऐसे शब्द नहीं हैं जो किसी आधिकारिक किताब में मुद्रित हों और भुला दिये गये हों। पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में जातिप्रथा का व्यवहार एक से अधिक रूपों में व्याप्त है। बहुत से क़ैदियों ने, जिनसे सम्पर्क किया गया, विशुद्ध रूप से अपने जन्म की जाति के आधार पर अलगाव में डाले जाने और निम्न स्तर के कामों के लिये मजबूर किये जाने के अपने अनुभवों को साझा किया। जब कि ब्राह्मण और अन्य ऊँची जातियों के क़ैदी ऐसे कामों से अपनी छूट को गर्व और विशेषाधिकार का विषय मानते हैं, शेष सभी अपनी दुर्दशा के लिये केवल जाति व्यवस्था को दोषी मानते हैं।

"जेल आप को आप की असली औक़ात बता देता है", कहना है पिंटू, एक भूतपूर्व क़ैदी का, जिसने जुब्बा साहनी भागलपुर जेल में एक दशक के आस-पास और कुछ महीने मोतिहारी सेंट्रल जेल में बिताये हैं। पिंटू ' नाई' अथवा बाल बनाने वाले समुदाय का है, और जेल के अपने पूरे प्रवास की अवधि में उसने यही किया है।

काम लिये जाने के मामले में बिहार का जेल मैन्यूअल भी जाति संस्तरण को औपचारिक मान्यता देता है। उदाहरण के लिये, यह उनके बारे में कहता है जिन्हें स्वीपिंग का काम दिया जाना है : "स्वीपर मेहतर या हारी जाति से चुने जायेंगे, वे चांडाल या अन्य नीची जातियों से भी लिये जा सकते हैं, जो ज़िले की परंपरा के अनुसार जेल से छूटने पर इसी तरह के काम करते हैं, या फिर उस जाति से जिसका क़ैदी इस काम को स्वेच्छा से करने के लिये तैयार हो।" ये सभी तीनों जातियाँ अनुसूचित जाति श्रेणी में आती हैं।

समय- समय पर जेल मैन्यूअलों में में कुछ हल्के-फुलके बदलाव होते रहे हैं। कभी ऐसा जन दबाव ( public outcry) अथवा सर्वोच्च या उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के चलते हुआ है ; कभी-कभी राज्य खुद इसकी ज़रूरत महसूस करते हैं। मगर इसके बावजूद अधिकांश राज्यों में जाति-आधारित श्रम व्यवहारों की अनदेखी होती रही है।

कुछ राज्यों में, उदाहरण के लिये उत्तर प्रदेश में," धार्मिक कर्मकांडों(scruples) और जाति पूर्वाग्रह" का "सुधारात्मक प्रभावों" में विशेष महत्व है। जेल में सुधारात्मक प्रभावों पर केंद्रित एक अलग चैप्टर कहता है, "जहां तक यह अनुशासन की संगति-सामंजस्य में हो, सभी मामलों में बंदियों के धार्मिक कर्मकांडों और जाति पूर्वाग्रहों का तर्कसंगत सम्मान किया जायेगा।" जेल प्रशासन को इन पूर्वाग्रहों की "तर्कसंगति और सामंजस्य" के संबंध में अपने विवेकानुसार निर्णय का सम्पूर्ण विशेषाधिकार है। हालाँकि व्यवहार में इस "तर्कसंगत" का एकमात्र अर्थ पुरुष और महिला दोनो ही श्रेणियों के बंदियों से लिये जाने वाले काम के निर्धारण और काम से छूट के मामले में गहनतम जाति पूर्वाग्रहों को और भी मज़बूत करना है।

मध्य प्रदेश जेल मैन्यूअल भी, जिसे कुछ वर्ष पहले ही संशोधित किया गया था, संरक्षणकारी (conservancy) काम - मैन्यूअल स्केवेंज़िंग के लिये आधिकारिक शब्द, के जाति-आधारित निर्धारण को जारी रखे हुए है।"मल वहन" अथवा कंजरवेंसी शीर्षक का चैप्टर कहता है कि "मेहतर क़ैदी" टॉयलेटों में मानव मल-मूत्र की साफ़-सफ़ाई के लिये ज़िम्मेदार होगा।

हरियाणा और पंजाब राज्यों के जेल मैन्यूअलों में भी ऐसे ही व्यवहारों का उल्लेख है। स्वीपर, नाई, कुक, अस्पताल कर्मचारी और अन्य तमाम कामों के लिये चयनित व्यक्ति की जाति पहचान के आधार पर पूर्व-निर्धारित हैं। यदि किसी जेल में किसी विशेष जाति के क़ैदी का उस जाति के काम के लिये अभाव हो तो यह कमी पास की जेलों से ऐसे क़ैदियों को ला कर पूरी की जाती है। मैन्यूअल में नियमों के किसी अपवाद या परिवर्तन का उल्लेख नहीं है।

सबिका अब्बास, "कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव्स" (CHRI) - क़ैदियों के अधिकारों पर काम करने वाले एक एनजीओ की प्रोग्राम अधिकारी ने हाल ही में पंजाब और हरियाणा की जेलों का दौरा किया। वह कहती है कि उन व्यवहारों की उद्दंडता ने उसे अवाक् कर दिया।" पुरुष और महिला क़ैदियों ने समान रूप से अपनी जाति और उनसे लिये लिये जाने वाले जाति आधारित कामों के अनुभवों को साझा किया। कुछ लोग अपनी ग़रीबी और अपने परिवार की ओर से वित्तीय सहायता के अभाव के चलते उस काम को करने के लिये मजबूर किये गये थे। मगर वे सभी क़ैदी भी मुख्यतः पिछड़ी जाति समूहों से ही थे।" अब्बास का कहना है।

उसका शोध, जो हरियाणा और पंजाब के क़ानूनी सेवा प्राधिकारियों द्वारा प्रायोजित (commissioned) किया गया था, जेल व्यवस्था को प्रभावित करने वाले तमाम मुद्दों को शामिल करता है। अब्बास के अनुसार इसके बावजूद कि विचाराधीन बंदियों को जेल में श्रम से छूट है, विद्यमान वास्तविक व्यवहार उन्हें ऐसा करने के लिये मजबूर करता है। वह कहती है,"दोनो ही राज्यों की अधिकांश जेलों में हमने देखा कि स्वीपर और क्लीनर के पद वर्षों से ख़ाली पड़े थे। यह मान लिया गया था कि ये निम्न कोटि के काम निचली जाति समूहों के क़ैदियों से कराये जायेंगे"। अन्य राज्यों के मैन्यूअलों से अलग, जो अभी भी औपनिवेशिक़ जेल नियमों का पालन कर रहे हैं, अब्बास पंजाब मैन्यूअल में हुए संशोधनों को इंगित करती है। वह आगे कहती है, "पंजाब मैन्यूअल तुलनात्मक रूप से नया है। यह 1996 में संशोधित हुआ था मगर अभी भी इसने जाति-आधारित प्रावधानों को नहीं हटाया है।"

पश्चिम बंगाल शायद वह अकेला राज्य है, जिसने "राजनीतिक अथवा जनतांत्रिक आंदोलनों" से जुड़े क़ैदियों के लिये विशेष प्रावधान किए हैं, मगर जाति के आधार पर काम लेने के मामलों में यह भी उतना ही प्रतिगामी और असंवैधानिक है जितने अन्य तमाम राज्य। उत्तरप्रदेश की ही तरह, पश्चिम बंगाल मैन्यूअल भी "धार्मिक व्यवहारों अथवा जाति पूर्वाग्रहों के साथ हस्तक्षेप नहीं करने" की नीति का पालन करता है। कुछ ख़ास धार्मिक ज़रूरतों को मैन्यूअल में मान्यता दी गयी है - ब्राह्मण के लिये "जनेउ" पहनना, या मुसलमान के लिये एक ख़ास लम्बाई के पैजामे। मगर इसी के साथ मैन्यूअल यह भी कहता है : "भोजन जेल के अधिकारी की देख-रेख में उपयुक्त जाति के क़ैदी कुकों द्वारा बनाया और बंदीघरों (cells) में पहुँचाया जायेगा।" इसी तरह "स्वीपरों को मेहतर या हारी जाति से चुना जाना चाहिये, चांडाल या अन्य जातियों से भी, यदि ज़िले की प्रथा-परंपरा के अनुसार जेल से छूटने पर वे इसी तरह का काम करते हों, या फिर अन्य जाति से, यदि क़ैदी अपनी स्वेच्छा से इस काम के लिये खुद को प्रस्तुत करता है।"

ये व्यवहार जेल के नियमों की किताबों में शुरू से बने हुए हैं, पर इन्हें कभी चुनौती नहीं दी गयी। डा० रियाजुद्दीन अहमद, आंध्र प्रदेश के भूतपूर्व जेल महानिरीक्षक और वेल्लोर में सरकारी "अकादमी ओफ़ प्रिजंस एंड करेक्शनल अड्मिनिस्ट्रेशन" के भूतपूर्व निदेशक का कहना है कि नीतिगत निर्णय लेते समय जाति के मुद्दे पर कभी कोई विमर्श नहीं हुआ है। वह कहते हैं, "34 वर्ष लम्बे मेरे कैरियर में, यह मुद्दा कभी बहस-विमर्श के लिये नहीं आया"। अहमद महसूस करते हैं कि मैन्यूअल में उल्लिखित अनुच्छेद ज़्यादातर राज्य की उनके प्रति अभिवृत्ति के अवतरण (incarnated) का प्रतिबिंब हैं। "जेल के अधिकारी भी, आख़िरकार उसी जाति ग्रसित समाज से आते हैं जो बाहर है। मैन्यूअल में चाहे जो कहा गया हो, क़ैदियों की अस्मिता और समानता को सुनिश्चित करना पूरी तरह से जेल अधिकारियों पर निर्भर है।" अहमद का मानना है।

दिशा वाडेकर, दिल्ली की एक वकील और भारतीय जाति व्यवस्था की मुखर आलोचक जेल के क़ानूनों की तुलना प्रतिगामी "मनु के क़ानूनों" से करती है। एक मिथकीय व्यक्तित्व, मनु को मनुस्मृति का रचयिता माना जाता है जिसने प्राचीन काल में मनुष्यता की जाति और जेंडर के आधार पर वर्गीकरण को मान्यता प्रदान की।

वाडेकर इसे विस्तार से व्याख्यायित करती है "जेल व्यवस्था सीधे-सीधे मनु की दण्डनीति को दुहराती (replicates) है। जेल व्यवस्था उस मानक (normative) दण्डविधान के अनुरूप चलने में नितांत असफ़ल है जो "क़ानून के समक्ष समानता" और "क़ानून के संरक्षण" के मान्य सिद्धांतो पर निर्मित है। इसके विपरीत यह मनु के क़ानूनों का अनुसरण करती है जो अन्याय और अनीति के सिद्धांतों पर आधारित हैं - एक ऐसी व्यवस्था जिसका मानना है कि कुछ जीवन दूसरों की अपेक्षा ज़्यादा दंडित किये जाने के लिये हैं और कुछ जीवन दूसरों की अपेक्षा ज़्यादा मूल्यवान हैं। राज्य "न्याय" की जाति आधारित समझदारी से चिपके हुए हैं, और दण्ड व श्रम का निर्धारण व्यक्ति की जाति के अनम्य खाँचे में उसकी अवस्थिति के अनुसार होता है।"

पश्चिम बंगाल को छोड़ कर सारे भारतीय राज्यों ने जेल अधिनियम,1894 से अनुकरण किया है। अहमद इसमें जोड़ते हैं कि "न केवल अनुकरण, बल्कि वे वहीं चिपक कर रह गये हैं।" 2016 में ब्यूरो ओफ़ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट (BPRD) ने एक विस्तृत 'मॉडल प्रिजन मैन्यूअल' प्रस्तुत किया। यह मॉडल प्रिजन मैन्यूअल यूनाइटेड नेशन्स रूल्स फ़ॉर दि ट्रीटमेंट ओफ़ विमन प्रिजनर्स" ( UN Bangkok Rules) और "यूएन मिनिमम स्टेंडर्ड्स फ़ॉर ट्रीटमेंट ओफ़ प्रिजनर्स" ( the Mandela Rules) जैसे अंतर्राष्ट्रीय मानकों की संगति में बनाया गया है। ये दोनो ही नियम ऐसे किसी भी व्यवहार के अंत का आह्वान करते हैं जो व्यक्ति की नस्ल, रंग, सेक्स, भाषा, धर्म, राजनीतिक अथवा अन्य विचार, राष्ट्रीय अथवा सामाजिक उद्गम,सम्पदा, जन्म अथवा किसी भी अन्य अवस्थिति के आधार पर भेदभाव करते हों। नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय कोवेनांट, जो संयुक्त राष्ट्र द्वारा 1977 में प्रतिपादित किया गया था, और भारत जिसकी एक पार्टी है, स्पष्ट कहता है कि : "किसी भी व्यक्ति से जबरन अथवा अनिच्छुक (forced or compulsory) काम नहीं कराया जायेगा।"

* कुछ नाम पहचान छुपाने के लिये बदल दिये गये हैं।

Available in
EnglishSpanishItalian (Standard)GermanFrenchHindiPortuguese (Portugal)Portuguese (Brazil)
Author
Sukanya Shantha
Date
28.01.2021
Source
Original article🔗
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