संपादक की टिप्पणी: आधुनिक दक्षिण एशिया एक आघात में पैदा हुआ था । दशकों के औपनिवेशिक शोषण के बाद 15 अगस्त, 1947 को भारत को यूनाइटेड किंगडम से आज़ादी मिली । लेकिन स्वतंत्रता के साथ विभाजन आया: ब्रिटिश भारत का विभाजन मुख्य रूप से हिंदू और सिख भारत में, और मुस्लिम पाकिस्तान (अब बांग्लादेश सहित) में हुआ - एक प्रक्रिया जो सांप्रदायिक हिंसा, लाखों लोगों के विस्थापन और सैकड़ों हजारों की मौतों के साथ आई थी । उपमहाद्वीप और विशेष रूप से बंगाल जैसे क्षेत्र, जिन्हें विभाजन का खामियाज़ा भुगतना पड़ा - वहाँ आज भी इसके निशान बाकी हैं ।
हर साल 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस पूरे भारत में बड़े-बड़े समारोह लाता है और एक त्योहार की तरह मनाया जाता है। लेकिन “अगला दिन” एक भयानक चुप्पी लाता है: तबाही की एक अनकही स्मृति जिसे दोनों ओर लोग मान्यता नहीं देना चाहते। क्योंकि स्वतंत्रता का अर्थ भारत का दो राज्यों - भारत और पाकिस्तान में विभाजन भी था, जो अपने साथ-साथ हानि, हिंसा और विस्थापन लेकर आया था।
आज, भारत में एक धार्मिक-राष्ट्रवादी संघीय सरकार है जिसे ऐतिहासिक संशोधनवाद में महारथ हासिल है, और जो अपने कट्टरपंथी होने पर गौरव महसूस करती है। यही कारण है कि भारत के विभाजन की दर्दनाक घटना की विरासत को विकृत करने के सस्ते प्रयासों का विरोध करना कभी भी अधिक महत्वपूर्ण नहीं रहा है ।
इस संदर्भ में डॉ रितुपर्णा रॉय ने Kolkata Partition Museum की सह-स्थापना की - पहला समकालीन बंगाली संग्रहालय जो कि विशेष रूप से विभाजन के विषय के लिए समर्पित है: इससे आने वाली प्रलय, इसके पीड़ित और अपराधी और इसके बाद इससे उभरने का रास्ता। डॉ राय ने खुद से पूछा: “क्या संग्रहालय, कला और साहित्य इतिहास के घावों को ठीक करने में मदद कर सकते हैं ? राजनीतिक घृणा से परे एक साझा भविष्य की कल्पना करने में मदद कर सकते हैं?”
कोलकाता में बड़े होते हुए वहाँ के स्कूलों में पढ़ाए गए इतिहास ने उन्हें भारत के 1947 विभाजन द्वारा डाली गई छाया की अधूरी तस्वीर पेश की, विशेष रूप से बंगाल प्रांत पर इसका प्रभाव । उस ऐतिहासिक मोड़ पर बंगाल राजनीतिक रूप से कट्टरपंथ, गरीबी और हिंसा से पीड़ित था । डॉ रॉय बताती हैं, “हमारे पास साहित्य है, हमारे पास विभाजन पर फिल्में हैं, लेकिन कोई सार्वजनिक स्मरणोत्सव नहीं है।”
डॉ रॉय को प्यार से रितु के नाम से जाना जाता है, वे बताती हैं कि कैसे उनकी परियोजना एम्स्टर्डम में अनुसंधान पूरा करते हुए लेडन विश्वविद्यालय में शुरू हुई। देशों और संस्कृतियों के विखंडन की गतिशीलता को बेहतर समझने की मांग उन्हें अन्य देशों की ओर ले गई जिन्होंने तुलनीय दर्दनाक प्रक्रियाओं को सहा था: आयरलैंड, पूर्व यूगोस्लाविया, और बर्लिन- एक शहर जो कि स्पष्ट और निर्णायक रूप से द्वितीय विश्व युद्ध के आसपास की घटनाओं और शीत युद्ध दोनों से प्रभावित हुआ था।
अक्तूबर महीने में बर्लिन में, यूरोप के यहूदियों को समर्पित आइसेनमैन वास्तु स्मारक में घूमते हुए एक विचार अंकुरित हुआ: "मैं एक पल के लिए बैठ गई, और पहली बार मैं इस अपराध की भयावहता से इस तरह प्रभावित हुई। मैंने किताबें पढ़ी थीं, फिल्में देखी थीं, लेकिन जिस तरह से इस स्मारक ने मुझे प्रभावित किया वह पूरी तरह से अलग था।”
"मैंने हमेशा साहित्य की शक्ति में विश्वास किया था और एक विद्वान के रूप में अभी भी करती हूं। यहां बर्लिन में पहली बार, इसे अपर्याप्त महसूस किया । इससे मुझे कला की शक्ति का अनुमान हुआ - बहुत विस्तारित अर्थों में”, वास्तुकला और प्रतिष्ठानों सहित ।
एक और बर्लिन प्रदर्शनी, टोपोग्राफी ऑफ टेरर, “अपराधियों और पीड़ितों - दोनों के नजरिए को टटोलता है। यह प्रदर्शिनी, साल-दर-साल होने वाली घटनाओं का ब्योरा देती है - और नागरिकों को आमंत्रित करती है ये कहने के लिए कि 'यह हमारा अतीत है । यह शर्मनाक है पर यह हमने हीं किया है।’ शर्मनाक अतीत को स्वीकार करना उपचार की दिशा में बढ़ने वाला पहला कदम है ।
“एक और सोच ने मुझे उस समय ग्रस्त किया; यह भारतीय विभाजन की 60 वीं वर्ष की सालगिरह थी.. । भारत में, हम स्वतंत्रता का जश्न मनाते हैं, लेकिन शैक्षिक सम्मेलनों को छोड़कर विभाजन का स्मरण तक नहीं करते। क्यों न एक अधिक सार्वजनिक तरीके से विभाजन को याद किया जाए? इस तरह विभाजन को सार्वजनिक रूप से यादगार क्यों न बनाया जाए ? यह उस समय पर सिर्फ एक खयाल के रूप में आया था।”
ऐतिहासिक विभाजन के यूरोपीय स्थलों की अपनी शिक्षाप्रद यात्रा के वर्षों बाद, राय बंगाल में अपने गृहनगर कोलकाता में बस गईं। इसके तुरंत बाद, वह एक और यात्रा पर निकल गईं, इस बार घर के करीब; रॉय एक प्रदर्शनी हॉल की सह-क्यूरेटर बनीं जो बाद में कोलकाता विभाजन संग्रहालय बन गया।
डॉ राय का काम दिवंगत नोबेल पुरस्कार विजेता बंगाली कवि और बहुमंत रवींद्रनाथ टैगोर की झलक दर्शाता है। टैगोर, जो आज बंगाली कल्पना में एक नायक हैं, ने उपनिवेश विरोधी लेख लिखे जिसने महानगरीय भावना, और पूर्व तथा पश्चिम के बीच क्रॉस-पोलीनैशन की भावना को एक साथ छुआ।
एडवर्ड सैद की ओरिएंटलिज़्म से दशकों पहले, टैगोर ने पूर्व और पश्चिम के दृष्टिकोण को अलग-थलग, शत्रुतापूर्ण या पारस्परिक रूप से विरोधी मानने से अस्वीकार कर दिया था । उन्होंने एक बार कहा था, “राष्ट्र का विचार सबसे शक्तिशाली एनेस्थेटिक्स में से एक है जिसका आविष्कार मनुष्य ने किया है। इसके प्रभाव में लोग अपने सबसे उग्र पक्ष के व्यवस्थित कार्यक्रम को अंजाम दे सकते हैं, इसकी नैतिक विकृति के बारे में कम से कम जानते हुए - और यह बताए जाने पर खतरनाक आक्रोश महसूस कर सकते हैं।"
डॉ राय यह भी जानते हैं कि भारत और पाकिस्तान में आज की नाराज़गियां और तनाव 1947 से अब तक के फैले हुए, लंबे और अपीरिक्षित इतिहास से पैदा हुई हैं। यह संग्रहालय अपने आगंतुकों को अपनी साझा विरासत को फिर से खोजने के लिए आमंत्रित करके, सांप्रदायिक-राष्ट्रवादी बयानबाज़ी के परे जाकर, अतीत की सच्चाई का सामना करने में मदद कर सकता है। एक स्मारक केवल शर्म और अपराध बोध को हीं नहीं दर्शाता, जैसे कि हालकॉस्ट समारकों को यूरोप में अक्सर माना जाता है। शर्म और अपराध बोध को दर्शाने वाले स्मारक बहुत अधिक मात्रा में हैं, और "शक्तिशाली एनेस्थेटिक्स" इन्हें अभिभूत नहीं करते।
दक्षिण एशियाई संदर्भ में, स्मारक बनाने का लक्ष्य एक भूली हुई याद को ताज़ा करना है, एक जीवित विरासत को पुनर्जीवित करना है, और इसे एक बार फिर खिलने में मदद करना है ।
यह लेख शो ‘कॉस्मोपॉलिटन शिपरेक्स’ के लिए डॉ रॉय के साथ एक साक्षात्कार का सारांश है ।