याँगून (YANGON) - जनतांत्रिक रूप से निर्वाचित शासन के पाँच सालों के बाद, म्यांमार की जनता सैनिक तानाशाही की ओर लौटने के लिये हरगिज़ तैयार नहीं है। कर्फ़्यू और मार्शल लॉ के बावजूद, हज़ारों-हज़ार प्रतिरोध कर्ता-प्रदर्शनकारी इस समूचे दक्षिणपूर्वी एशियायी राष्ट्र की सड़कों पर उमड़े पड़ रहे हैं। देश के सबसे बड़े शहर याँगून से ले कर डेल्टा, पहाड़ों, और बंदरगाहों तक, तमाम पृष्ठभूमियों के लोग "सेना का नाश हो!" ( Let the military fall!) की चीत्कारों के साथ तीन-उँगलियों का 'हंगर गेम सेल्यूट' लहरा रहे हैं जो समूचे दक्षिणपूर्वी एशिया में प्रतिरोध का प्रतीक बन चुका है।
याँगून में एक प्रदर्शनकारी थ्री फिंगर सलूट करता हुआ। थ्री फिंगर सलूट पूरे दक्षिणपूर्वी एशिया में प्रतिरोध का प्रतीक बन गया है ( Kenji)
1 फ़रवरी को, देश की नागरिक नेता आँग सान सू की को गिरफ़्तार करके सेना ने सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया; और एक साल के लिये आपातकाल की घोषणा कर दी। पहले तो, इस अचानक और अप्रत्याशित कदम से म्यांमार की जनता अचंभित और भयभीत सी हो गयी : उन्होंने भोजन-अनाज जमा करना शुरू कर दिया, नक़द निकासी करने लगे, और घरों के अंदर बंद हो गये। अगली शाम, उन्होंने अपने दरवाज़ों और बालकनियों पर खड़े होकर थाली-कलछी बजाना शुरू किया। एक दिन बाद से, गीत - "काबर मा क्यायी बू" ( "दुनिया के अंत तक भी हम समर्पण नहीं करने वाले") - याँगून की सड़कों पर गूँजने लगा। देश के 1988 छात्र विद्रोह के स्मृतिगान के रूप में यह गीत कैनसास (Kansas) के "डस्ट इन दि विंड" की धुन पर गाया जाता है :
हम दुनिया के ख़त्म होने तक समर्पण नहीं करेंगे
अपने लहू से लिखे गये इतिहास की रक्षा के लिये
क्रांति
उन शहीद शौर्यवान वीरों के लिये, जो जनतंत्र के लिये लड़े
6 फ़रवरी से, कार्यकर्ताओं ने मार्च निकालना शुरू किया । 8 फ़रवरी तक, सौ से ज़्यादा शहर और कस्बे आंदोलन में शामिल हो चुके थे। प्रदर्शनकारी न केवल तमतमाती धूप, कोरोनावायरस, और इंटरनेट ब्लैक आउट का, बल्कि हथियारबंद पुलिस का भी सामना कर रहे थे। पुलिस असली गोली से एक प्रदर्शनकारी की हत्या भी कर चुकी है।
जिन लोगों से हमने साक्षात्कार लिये, वे तमाम उम्र, जातीयताओं, और राजनीतिक विचारधाराओं से थे, और सामान्य परिस्थितियों में, वे राजनीति के सवालों पर एक दूसरे से झगड़ सकते थे। इसके बावजूद तानाशाही को उखाड़ फेंकने की आकांक्षा ने जनता के अंदर आश्चर्यजनक-अभूतपूर्व एकजुटता का संचार किया है।
"मैं नहीं चाहता मेरे बच्चे इस देश में वैसे ही बड़े हों जैसे मैं हुआ था, वर्दीधारी लोगों से भय खाते हुये", शांति और अंतर्धार्मिक कार्यकर्ता थेट स्वे विन ने कहा। "मैं उस अंधेरे युग में वापस नहीं लौटना चाहता।"
वर्तमान प्रतिरोध प्रदर्शनों में नेतृत्वकारी भूमिका निभाता हुआ स्वे विन जानता है कि वह अपना जीवन ख़तरे में डाल रहा है। और बहुत सारे कार्यकर्ताओं की तरह वह भी भूमिगत है। हमने उससे फ़ोन पर बिना उसका ठिकाना जाने हुए साक्षात्कार लिया।उसने कहा : " मुझे चाहे जितने ख़तरे उठाने पड़ें, मैं अपने बच्चों के लिये, अगली पीढ़ी के लिये, और इस देश के भविष्य के लिये आगे बढ़ना जारी रखूँगा। मैं सैनिक शासन के अंदर 20 या 30 सालों तक इंतज़ार नहीं करना चाहता। हमें कदम उठाने ही होंगे।"
1962 से 2011 तक इसके पहले की सैन्य जुंता लोगों के बोलने और आने-जाने की निगरानी करती रही, स्वतंत्र मीडिया का गला घोंटती रही, और कलाओं का दमन करती रही। 1988 में विश्वविद्यालय के छात्रों ने तत्कालीन सैनिक शासन के ख़िलाफ़ लाखों लोगों के अहिंसक आंदोलन का नेतृत्व किया, और 2007 में दसियों हज़ार बौद्ध भिक्षुओं ने "भगवा क्रांति" में शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया। दोनो ही विद्रोहों का सेना ने हत्याओं और गिरफ्तारियों से जबाब दिया जिसके चलते हज़ारों को पलायित होना पड़ा।
" अगर हमने सैन्य शासन के ख़िलाफ़ प्रतिरोध नहीं किया, अगली पीढ़ी को ख़राब शिक्षा, स्वास्थ्य और, प्रशासनिक व्यवस्थाओं में बड़ा होना पड़ेगा, जैसा हमें होना पड़ा था" कहना था मांडले में एक 29 वर्षीया मानवाधिकार कार्यकर्ता का, जिसने बताया कि वह देश को ग़रीबी और निरंकुशता के गर्त में वापस गिरने से बचाने के लिये प्रदर्शन कर रही थी।
काचिन राज्य राजधानी में ला दोई के लिये यह अनुभूति कहीं ज़्यादा कष्टकर थी। उसने कहा : " सैन्य शासन के अंदर हमारे भविष्य की कल्पना मात्र से मेरा सर फटने लगता है।" उसके अनुसार " हमें विपन्नता और त्रासद परिस्थितियों में रहना होगा, जहां कोई क़ानून का राज अथवा मानवाधिकार, न्याय का संरक्षण या सम्मान जनक आजीविका नहीं होगी। हमें दमन, ज़बरिया श्रम, और संरचनात्मक हिंसा के अधीन रहना होगा। हम आतंक और दमन के उस दुस्वप्न की ओर नहीं लौटना चाहते।"
जा हिक़े, ट्रांस व्यक्ति और LGBTQ अधिकार कार्यकर्ता, जिसके लिये हम उसकी सुरक्षा की दृष्टि से छद्म नाम का प्रयोग कर रहे हैं, ने कहा कि नागरिक सरकार के तख्तापलट ने एक कार्यकर्ता के रूप में उसकी उम्मीदों को तार-तार कर दिया है। एक बर्मी कहावत का प्रयोग करते हुए उसने कहा," हमारे प्रयास जैसे रेत में गिरे पानी की तरह ग़ायब हो गये।"
याँगून में एक प्रतिरोध पोस्टर "तुमने ग़लत पीढ़ी से पंगा ले लिया है" (Kenji)
बहुत से प्रतिरोधकारी आँग सान सू की के पक्ष में हैं, जो 1988 प्रतिरोध के दौर से ही एक जनतंत्र-पक्षधर व्यक्तित्व के रूप में उभर कर पूरे देश में व्यापक रूप से लोकप्रिय हैं। सेना ने उसे 15 साल तक घर के अंदर नज़रबंदी में रखा था। अलगाव, प्रतिबंधों, और अंतर्राष्ट्रीय दबाव के चलते, सेना को उन्हें 2010 में रिहा करना पड़ा, और इसी के साथ राजनीतिक सुधारों की शुरूवात करनी पड़ी जिसके चलते अंततः 2015 में चुनाव हुए। सेना द्वारा 2008 में हड़बड़ी में पारित किये गये संविधान, जब देश साइक्लोन नरगिस से जूझ ही रहा था, उन लोगों को राष्ट्रपति बनने से प्रतिबंधित करता है जिनके जीवन साथी (spouses) विदेशी मूल के हों। यह नियम ख़ासकर आँग सान सू की को वंचित करने के लिये बनाया गया था। इसके बावजूद, उसकी पार्टी नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी (NLD) की शानदार जीत ने उसे देश का वस्तुतः (de facto) नेता बना दिया।
2017 में, आँग सान सू की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा में, उत्तरी रखाइन राज्य में रोहिंगिया समुदाय के ख़िलाफ़ सैन्य कार्यवाही के चलते, गिरावट आइ। व्यापक नरसंहारों, यौन हिंसा, और आगज़नी के बीच लगभग 740,000 लोगों को बांग्लादेश पलायित होना पड़ा। मगर इस हिंसा की भर्त्सना करने के बजाय, आँग सान सू की ने 2019 में इंटरनेशनल कोर्ट ओफ़ जस्टिस (ICC) में नरसंहार (genocide) के आरोप के ख़िलाफ़ म्यांमार का बचाव किया। इस मामले का उसकी घरेलू लोकप्रियता पर नगण्य प्रभाव पड़ा, और उसकी पार्टी 2020 में दोबारा आसानी से जीत गयी। नयी सरकार के शपथ लेने से कुछ ही घंटे पहले सेना ने सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया।
कई प्रतिरोधकारियों का लक्ष्य आँग सान सू की को नागरिक सरकार के प्रमुख के रूप में पुनः प्रतिष्ठित करने से कहीं आगे जाता है। बहुत से लोग समूचे राजनीतिक व्यवस्था तंत्र में आमूल-चूल सुधार चाहते हैं। जब सेना ने 2008 में संविधान लिखा, इसने अपने लिये सारे महत्वपूर्ण मंत्रालयों पर निगरानी और संविधान संशोधनों पर वीटो का अधिकार सुरक्षित कर लिया। एनएलडी (NLD) पार्टी ने अपने पाँच वर्षीय कार्यकाल में संविधान में सुधारों का वायदा किया था, परंतु सेना द्वारा नियुक्त सांसदों ने प्रस्तावित संशोधनों पर रोक लगा दी।
"नागरिक सरकार ने 2008 संविधान के अधीन सेना का सामना करने की कोशिश की, और वे असफल रहे। हमें अनिवार्य रूप से इस संविधान को मिटा कर संपूर्ण रूप से जनतांत्रिक सिद्धांतों पर आधारित एक नया संविधान बनाना होगा", यह कहना था वाई यान फियो मोइ, "आल बर्मा फ़ेडरेशन ओफ़ स्टूडेंट यूनियंस" के उपाध्यक्ष ( vice chair) का - इस संगठन ने 1988 के प्रतिरोधों में भी केंद्रीय भूमिका निभाई थी।
म्यांमार की विविध जातीय-राष्ट्रीयताओं में से, जो अधिकांशतः देश के सीमांत क्षेत्रों के सात जातीय राज्यों में रहते हैं, एक नया संविधान चाहते हैं जो उनके लिये संघीय अधिकारों की गारंटी कर सके। 1948 में म्यांमार की स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर, आँग सान सू की के पिता ने जातीय नेताओं से संघीय व्यवस्था के अंतर्गत स्व-शासन का रास्ता बनाने का वायदा किया था - यदि वे नये बर्मा यूनियन में शामिल हो जाने की सहमति देते, तब। स्वतंत्रता हासिल होने के चंद महीने पहले उसकी हत्या हो गयी, और उसके वायदे के पूरा नहीं हो सकने के चलते भड़क उठने वाला गृहयुद्ध, दुनिया के सबसे लम्बे समय तक चलते रहने वाले गृहयुद्धों में से थे। आँग सान सू की की पार्टी ने अपने शासनकाल में शांति और संघीय व्यवस्था की स्थापना की दिशा में कदम आगे बढ़ाने का वायदा किया था, मगर इस दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई।
काचिन राज्य राजधानी में मार्च करता हुआ ला दोई उन हज़ारों लोगों में से एक है जो एक नए संविधान की माँग कर रहे हैं। उन बहुत से लोगों की तरह, जो जातीय राज्यों के संघीय अधिकारों के लिये प्रयासरत हैं, उसने एनएलडी के साथ जुड़े लाल रंग की जगह काला पहना हुआ है।
याँगून में 7 फ़रवरी के प्रतिरोध प्रदर्शनों के दौरान नॉ एस्थर चित, एक कैरिन युवती ने कहा कि वह इन प्रदर्शनों को सैन्य तानाशाही के ख़िलाफ़ 70 सालों के उस संघर्ष की धारावाहिकता और विस्तार के रूप में देखती है जिसे कैरिन के लोग लड़ते रहे हैं।
“मैं दमनकारी राष्ट्रवाद नहीं चाहती। मैं नहीं चाहती कि बहुसंख्या अन्य जातीय समूहों का दमन करे”, उसने कहा। “मैं चाहती हूँ कि (प्रतिरोध आंदोलन) हमारी जातीय राष्ट्रीयताओं की माँगों को शामिल करे . . .। मैं चाहती हूँ कि समूचा देश जातीय जनों के साथ सामंजस्य और समझदारी के साथ रहे।”
उन 300,000 से ज़्यादा लोगों के लिये, जो हिंसा के चलते पलायित हुए और कैम्पों में रह रहे हैं, शांति और सुरक्षा निर्णायक महत्व के प्रश्न हैं। प्रदर्शन करना उन बहुतों के लिये विकल्प नहीं है जो पहले से ही निशाना बने हुए हैं और दूर-दराज के अलग- थलग इलाक़ों में रहते हैं। मगर फिर भी वे अपने तरीक़ों से लड़ रहे हैं। हितू बू, एक काचिन युवती, जो क़रीब एक दशक पहले अपने गाँव पर सेना के हमले से पलायित हुई थी, ने चीन की सीमा के पास अपने विस्थापन कैम्प से आ कर एक लिखित वक्तव्य के साथ हमसे सम्पर्क किया और अपनी आवाज़ को अंतर्राष्ट्रीय पाठकों तक पहुँचाने का अनुरोध किया।
"हम वास्तविक जनतंत्र चाहते हैं, न्याय और सच्ची शांति के साथ," हितू बू ने लिखा। "60 से ज़्यादा वर्ष गुजर चुके हैं जब से हम (काचिन के लोग) भय, कष्ट और निराशा की स्थितियों में जी रहे हैं"।
काचिन, रोहिंगिया के साथ, उन बहुतेरी जातीय आबादियों में से हैं जिन्होंने सेना के हाथों ग़ैर-न्यायिक हत्या, यौन हिंसा, और उत्पीड़न झेला है। 2018 में संयुक्त राष्ट्र के एक तथ्य खोजी मिशन ने वरिष्ठ जनरल मिन आँग हलैंग, जिसके हाथों में आज सत्ता है, और सेना के अन्य शीर्षस्थ नेताओं के ख़िलाफ़ काचिन सहित तीन राज्यों में युद्ध अपराधों और मानवता के विरुद्ध अपराधों के लिये जाँच की माँग की थी।
अब लोग 300 से ज़्यादा नगरों और शहरों में प्रदर्शन कर रहे हैं, और हड़ताली सरकारी कर्मचारियों का नागरिक-अवज्ञा आंदोलन तेज़ी से फैल रहा है जो जनता में ऊर्जा, आवेग, और आशा का संचार कर रहा है।
थाई सीमा के पास ताचिलिक टाउन में, ये यिंत थू, जिसने हमसे अपने उप-नाम का प्रयोग करने का अनुरोध किया, को अपने परिवार से पहले जनतांत्रिक व्यवस्था तंत्र में पले-बढ़े व्यक्ति बनने की उम्मीद है। सड़कों पर प्रदर्शन में भागीदारी के साथ-साथ, विश्वविद्यालय का यह छात्र, जिसके माता-पिता को 1988 के प्रदर्शनों के लिये जेल हुई थी, हर रात अपनी दादी के साथ थाली-कलछी बजाता है।" मेरी दादी बहुत ग़ुस्से में है क्योंकि वह (1962 के) सैन्य तख्तापलट, 1988 के प्रतिरोध प्रदर्शन की अनुभूतियों से गुजरी है और अब यह। वह सैन्य तानाशाहों से ज़बर्दस्त नफ़रत करती है", उसने बताया। " मैं प्रतिरोध कर रहा हूँ क्योंकि मैं भी तानाशाहों को पसंद नहीं करता"।
हालाँकि प्राधिकारी प्रतिरोधकारियों को गिरफ़्तार कर रहे हैं, और बख़्तरबंद गाड़ियों की गश्त नगरों और शहरों में बढ़ती जा रही है, प्रदर्शन लगातार गति पकड़ते जा रहे हैं। पिछले सप्ताह एक शाम, मिन आँग हलैंग ने अपने एक टेलिविज़न सम्बोधन में जब लोगों से चुनाव करवाने और उन्हें "एक सच्चा व अनुशासित जनतंत्र" देने का वायदा किया, उसके शब्द लोगों के थालियाँ-कलछियाँ बजाने के शोर में डूब गये। याँगून में, इस हल्ले- गुल्ले में, "काबर मा क्याय बू" के गान गूंज रहे हैं : "हम इस दुनिया के अंत तक समर्पण नहीं करेंगे"।
क्याव हान हलेंग म्यांमार के रखाईन प्रांत से शांति, मानवाधिकार, और सामाजिक न्याय पर लिखने वाले स्वतंत्र पत्रकार हैं।
एमिली फ़िशबीन पत्रकार हैं जो म्यांमार और मलेशिया में शांति और अधिकारों पर लिखती हैं।