भारत में खनन परियोजनायें अरबों डालर क़ीमत की हैं, और उनका फ़ायदा उठाने वाले उद्योगपति दुनिया के गिने चुने सबसे धनवान लोगों में से हैं। ये परियोजनायें तीव्र गति से पर्यावरण क्षरण के लिये ज़िम्मेदार हैं और उन लाखों लोगों के ख़िलाफ़ हिंसा की नींव पर बनी हैं - जिनमें बड़ी संख्या औरतों की है। संकटों का यह संयोजन - पर्यावरणीय और पितृसत्तात्मक - "विकास" के एजेंडा में न तो संयोगवश हुआ है और न ही परस्पर विरोधी है।
भारतीय पूंजीवाद राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के संचालन के लिये जीवाश्म ईंधन पर निर्भर है, और सार्वजनिक व निजी क्षेत्र दोनो की ही ज़मीनों, जंगलों, नदियों और लोगों के शोषण-विदोहन में आपसी मिली भगत है। 1947 में देश की आज़ादी के बाद से, उस दो करोड़ पचास लाख हेक्टेयर भूमि से छः करोड़ से ज़्यादा लोग विस्थापित हो चुके है जिसमें सत्तर लाख हेक्टेयर से ज़्यादा वन भूमि है।
छत्तीसगढ़, मध्य-पूर्वी भारत के एक घने वन वाले राज्य में, भारी पैमाने पर विस्थापन हुए हैं। राज्य में लौह अयस्क, कोयला, चूना पत्थर, और टिन अयस्क का विशाल खनिज भंडार है, और साथ ही यह एक करोड़ आदिवासियों का घर भी है, जो दुनिया के सबसे विशाल आदिवासी समुदायों में से एक है। कभी कृषि क्षेत्र रहा यह राज्य, अब विशाल-पैमाने की खनन परियोजनाओं का संकुल (हब) है। बहुतेरे अध्ययनों ने दिखाया है कि इन परियोजनाओं के चलते, राज्य के कई भागों में भारी पैमाने पर वनों का ह्रास, वन्यजीवन विनाश, और प्रदूषण स्तर की भयावह वृद्धि हुई है। दूसरी ओर, नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (NCRB) की वार्षिक रिपोर्ट और "वीमेन अगेन्स्ट सेक्सुअल वायोलेंस एंड स्टेट रिप्रेशन" द्वारा दायर याचिकायें दिखाती हैं कि आदिवासी महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा की घटनायें भी - चाहे ये शारीरिक हिंसा के रूप में हों, ज़मीन के लिये अन्याय पूर्ण मुआवज़े के रूप में हों, महिला एक्टिविस्टों का दमन हो या फिर महिलाओं की गतिशीलता और काम की नैतिक ख़ुफ़ियागिरी हो - सभी इस क्षेत्र में लगातार बढ़ रही हैं।
इस परिप्रेक्ष्य में, विस्थापन चालित पूंजीवाद के तर्क ने पर्यावरणीय संकट पैदा कर दिया है और पितृसत्तात्मक संकट को गहरा कर दिया है। यह वह तर्क है जो ज़मीन और औरत के शरीर के संयुक्त जिंसीकरण ( commodification) के ज़रिये पूँजी का विदोहन और जमाख़ोरी करता है - दूसरे शब्दों में एक ऐसा पूँजीवादी तर्क, जो पितृसत्ता और पर्यावरण विनाश द्वारा पोषित होता है।
ऐतिहासिक रूप से, आदिवासियों का ज़मीन और जंगल पर सामूहिक स्वामित्व चलता आया है। साझा संपदाओं (commons) की देख-रेख का प्रतीकात्मक और भौतिक दोनो ही रूपों में भारी महत्व है और यह इन आबादियों की आजीविका के साथ अंतर्गुँथित है। साझा संपदाओं की देख-रेख और सांगठनिक व्यवस्था-प्रबंधन पर सिल्विया फ़ेडरेकी का अभिभूत कर देने वाला काम आदिवासी जीवनों पर भी उतने ही महत्वपूर्ण रूप से लागू होता है। जैसा कि उसने पाया, आदिवासी महिलायें इन साझा संपदाओं की जीवन-निर्माण गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं जिनमे भूमि, नदियों, पशुओं, और जंगलों की देख-रेख शामिल है।
मगर, खनन परियोजनाओं ने, आदिवासियों को ज़मीन के उस उपयोग से, जैसा वे ऐतिहासिक रूप से करते आये हैं, और जो प्रतीकात्मक अर्थ वे ज़मीन को देते रहे है, उससे वंचित करते हुए ज़मीन को एक माल में बदल दिया है। पृथ्वी को खोद कर के उसमें से सम्पदा निकालने का अर्थ है पृथ्वी को आजीविकाओं की प्रदात्री और संरक्षिका के रूप में अपमानित करना। पूंजीवाद के किसी भी अन्य वाणिज्यिक माल की तरह, ज़मीन का भी वस्तुकरण करते हुए उसे खुले व्यापार, निजी स्वामित्व, और मुनाफ़ा कमाने की चीज़ के बाज़ार के तर्कों के हवाले कर देता है।
नवउदारी नीतियों की शह पर उद्योगों और सरकार के बीच तमाम भागीदारियों ने यह सुनिश्चित किया है कि संसाधनों का व्यापार विकास के आवश्यक अंग के रूप में खुला, क़ानून सम्मत,और वैध रूप में मान्य रहे। खरबों डालर के सैकड़ों "मेमोरेंडम ओफ़ अंडरस्टैंडिंग" (MOU), और इसी के साथ निजी कंपनियों को भारी पैमाने पर सब्सिडियों ने यह सुनिश्चित किया है कि छत्तीसगढ़ जैसे क्षेत्र तमाम निवेशकों और उद्योगों को आकर्षित करते रहें।
आदिवासियों का अपनी ज़मीन से घातक-विनाशकारी विस्थापन इन ज़मीनों और जंगलों के निजी स्वामित्व की माँग करता है। चूँकि भारत का संविधान राज्यों को आदिवासी ज़मीनों और जंगलों के "संरक्षण" के लिये निर्देशित करता है, आज़ादी के बाद ऐसे बहुत से क़ानून बनाये गये जो प्रभावी रूप से स्थानीय आबादी को इस अन्यथा सामूहिक स्वामित्व वाली ज़मीन पर बने रहने के एकमात्र उपाय के रूप में इस पर वैयक्तिक मालिकाना दावा के लिये मजबूर करते हैं। उदाहरण के लिये, जब वन नियमन अधिनियम 2007 पहली बार प्रभावी हुआ, आदिवासी मामलों (Tribal Affairs) के मंत्रालय की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार देश भर में एक करोड़ चालीस लाख एकड़ वनभूमि पर असाधारण रूप से 42 लाख लोग दावा करने के लिये विवश हुए। इससे भी ख़राब यह था कि, जिन लोगों ने वैयक्तिक दावे किये उनके मालिकाना अधिकार (टाइटिल) की गारंटी नहीं की गयी। वही रिपोर्ट, उदाहरण के लिये, यह भी दिखाती है कि केवल 18 लाख लोगों को सचमुच ज़मीन दी गयी। इन दावों में छत्तीसगढ़ शीर्ष पर था, और जहां राज्य में लगभग दस लाख दावे किये गये थे, वास्तव में केवल आधे से भी कम लोगों को टाइटिल ग्रांट की गयी।बाक़ी सारे दावे निरस्त कर दिये गए, और प्रभावी रूप से इस आबादी को बेदख़ल कर दिया गया।
जेम्स फ़र्ग्यूसन और तानिया ली जैसे स्कालरों का तर्क है कि, "विकास" विमर्श के दावों के विपरीत, उन सभी को, जिन्हें ज़मीनों से बेदख़ल किया गया है, उन्हें वेतन-भोगी श्रम में समाहित नहीं किया गया है।बिना ज़मीन और काम के इन बेदख़ल लोगों के लिये अपनी आजीविका का श्रोत खोज पाने के लाले पड़ गये।हालाँकि यह आदिवासी महिलाओं के मामले में आंशिक सच हो सकता है, क्योंकि यह भी सच है की बहुत सी महिलायें भारत के बड़े शहरों में काम पाने में सफल भी हुई हैं, मगर ये काम पूरी तरह अनिश्चित और कम भुगतान वाले हैं।
छत्तीसगढ़,जो ज़मीन टाइटिल दावों की सूची में शीर्ष पर है, देश में ग्रामीण से शहरी इलाक़ों को माइग्रेशन में भी सबसे बड़ी हिस्सेदारी करता है।
अपने परिवार की बेदख़ली के बाद, महिलाओं के पास शायद ही कोई सम्पदा होती है, और वे विभिन्न स्तरों पर हिंसा का शिकार बनती हैं। इसके चलते वे आजीविका की तलाश में शहरों की ओर पलायन के लिये मजबूर हो जाती हैं। काम की किसी भी क़ीमत पर हताश तलाश अक्सर उनको दमनकारी जेंडर सम्बन्धों की ओर धकेलती है। कोई आश्चर्य नहीं कि, छत्तीसगढ़ देख-भाल करने वालियों, घरेलू कामगारिनों और सेक्सवर्करों के रूप में दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों और साथ ही राज्य के अंदर आस-पास के नगरों-क़स्बों (Towns) को भी आदिवासी महिला श्रम के सबसे बड़े "आपूर्तिकर्ताओं" में है। इनमें से अधिकांश कार्य नितान्त अनिश्चित और असुरक्षित कार्य दशाओं में संपादित किये जाते हैं।
देखभाल "केयर वर्क" में भारी माँग और जेंडर पूर्वाग्रहों से ग्रसित श्रमबाज़ार में धकेले जाने के अलावा,ये औरतें अंततः अपने देह व्यापार के लिये मजबूर हो जाती हैं।आदिवासी महिलाओं के शरीर की ट्रैफ़िकिंग और उनके शरीरों को "देह व्यापार" के लिये मजबूर कर के पूँजी कमाना वह दूसरा रास्ता है जिसके ज़रिये इन औरतों का वस्तुकरण होता है। "ब्लैक डायमंड वैशयालय" वह नाम है, जो औरतों के शरीर और उस ज़मीन, जिससे वे बेदख़ल की गयी हैं, के बीच गहरे अंतर्गुँथित रिश्ते को प्रतिबिम्बित करता है। ये चकलाघर भारत के शहरों में शोषणकारी सेक्सुअल श्रम के प्रचलित अड्डे हैं।
महिलाओं के शरीर का वस्तुकरण और उन्हें एक वस्तु के रूप में बदला जाना विकास के वृहत्तर एजेंडे में उनके शरीरों के ख़िलाफ़ हिंसा का भी सामान्यीकरण कर देता है। ज़मीन को आजीविका के श्रोत के रूप में अमान्य करने के माध्यम से राज्य उससे जुड़े वनस्पति, पौधों, पशुओं और जल जैसे प्राकृतिक संसाधनों के उच्छेद (erasure) को भी वैध ठहराने में सफल हो जाता है। प्रकृति और औरत के ख़िलाफ़ ऐसी हिंसा बेदख़लकारी पूंजीवाद का केंद्रीय तत्व है।
बहुत सी खनन परियोजनायें गहन हरित वनों और वन्यजीवन पर बनी हैं। पर्यावरणीय हिंसा का एक ताज़ा उदाहरण सरकार और निजी उद्योगों के स्वामित्व वाली क़रीब तीस कोयला ब्लाकों वाली परियोजना का है, जो छत्तीसगढ़ के हसदेओ अरंड वन क्षेत्र के 170,000 हेक्टेयर का विस्थापन कर देगी। इससे जुड़ा हुआ प्रश्न हाथियों के वन्य निवास क्षेत्र का विनाश और उसके नतीजे में मानव-पशु संघर्ष भी था।
छत्तीसगढ़ में आदिवासी महिलायें और उनके सहयोगी, दशकों से, राज्य और कारपोरेट नेतृत्व में चल रहे इन विस्थापनों के ख़िलाफ़ लगातार प्रतिरोध करते आ रहे हैं। आदिवासी महिलायें और पुरुष, बार-बार, ज़मीन के पूंजीवाद द्वारा बहुवांछित जिंसीकरण और उससे जुड़े निजी पूँजी के संकेंद्रण के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की चट्टान के रूप में उठ खड़े हुए हैं। इसके चलते उनके प्रतिरोध को लगभग हर बार राज्य की ओर से दमन का सामना करना पड़ा है।
हालाँकि सभी आदिवासी पुरुष और महिला इस दमन का शिकार बनते हैं, मगर आदिवासी महिलायें इसका ख़ास निशाना बनती हैं।आदिवासी महिलाओं के ख़िलाफ़ क्रूर-बर्बर हिंसा की घटनाओं में लगातार वृद्धि हो रही है, जिनमें उनके शरीर पर सामूहिक और बार-बार होने वाले हमले शामिल हैं। यह बर्बरता वस्तुतः महिलाओं की आवाज़ को दबाने और बेदख़ली- विस्थापन के ख़िलाफ़ उनके प्रतिरोध को तोड़ने का एक हथियार है।
हाल ही की एनसीआरबी रिपोर्टों के आँकड़े दिखाते हैं कि छत्तीसगढ़ के खदान वाले ज़िलों में आदिवासी महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा ख़ासकर भयावह रूप ले चुकी है। ये रिपोर्ट दिखाती हैं कि 2016 से 2018 के बीच, ऐसे क़रीब 100 मामले दर्ज हुए, जिनमे आदिवासी महिलाओं का बलात्कार हुआ, उन पर यौनिक हमले हुए, और हत्यायें हुईं। ख़ासकर कोरबा, जशपुर, रायगढ़, सुकमा और कोरिया जिलों की हिंसा की इन घटनाओं में सबसे ज़्यादा हिस्सेदारी है। ये वे ज़िले हैं जहां प्रमुख खनन परियोजनायें स्थित हैं - ये ज़िले बेदख़ली-विस्थापन विरोधी आंदोलनों के भी केंद्र हैं। हालाँकि वही एनसीआरबी रिपोर्ट इन हिंसा के अपराधियों के बारे में कोई जानकारी नहीं देतीं, मगर स्थानीय क़ानूनी सहायता समूहों की रिपोर्टों से इसकी जानकारी मिलती है। वे दिखाती हैं कि सशस्त्र बल, पुलिस, और खदानों की सुरक्षा में तैनात "कम्पनी के गुण्डे" ही इस हिंसा को अंजाम देने के लिए प्राथमिक रूप से ज़िम्मेदार हैं।
यह "हैंडबुक हिंसा", जैसा कि फ़ेडेरेकी इसे कहती है, भारत के बेदख़ली-विस्थापन चालित पूंजीवाद के लिये व्यर्थ का बोझ (superfluous) नहीं बल्कि इसका ज़रूरी हिस्सा है - पूरी सावधानी और योजनाबद्ध रूप से महिलाओं की आवाज़ दबाने और किसी भी प्रकार के प्रतिरोध को रोकने के लिये विकसित किया गया हिस्सा।
इस प्रक्रिया को क़ानून के तंत्र से भी भरपूर समर्थन- सहयोग मिलता है।
इस तथ्य के बावजूद कि कारपोरेटों ने ज़मीन और आजीविका का अतुलनीय विनाश किया है, न केवल उनकी गतिविधियाँ बे रोकटोक चलती रही हैं, बल्कि उन्हें क़ानून के उस तंत्र का भी भरपूर संरक्षण प्राप्त है - जो भारत में औपनिवेशिक़ युग से ही मौजूद रहा है।
भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1957, और इंडियन फ़ॉरेस्ट एक्ट 1927 ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा पूँजीवादी विकास के लिये आदिवासियों के विस्थापन और ज़मीनों व जंगलों पर क़ब्ज़े को वैधता प्रदान किये जाने के लिये बनाये गये थे। आज़ादी के बाद भी इन क़ानूनी प्रावधानों को निरस्त नहीं किया गया। इसके उलट, इन क़ानूनों को बार-बार राज्य के जनतांत्रिक, उदारवादी, और अब नव उदारवादी क़ब्ज़े के हितों के अनुरूप संशोधित किया जाता रहा है।
इसी तरह, महिलाओं के विरुद्ध हिंसा अक्सर बिना दंडित हुए चलती रही है। महिलाओं के ख़िलाफ़ रोज़मर्रा की हिंसा - चाहे वह सड़क पर उत्पीड़न, पुलिस द्वारा कस्टोडियल हिंसा, बेदख़ली-विरोधी महिला कार्यकर्ताओं पर आक्रमण के रूप में हो या फिर औरत को सम्पदा स्वामित्व से वंचित करने के लिये डायन दहन के रूप में हो - सभी आराम से क़ानून के शिकंजे और राज्य की अन्यथा इस क्षेत्र में गहन ख़ुफ़िया गिरी की क्षमताओं की पकड़ से बाहर बने रहते हैं।
क़ानून के इस तंत्र के ख़िलाफ़ आंदोलन - चाहे वे वन अधिकार क़ानून 2006 के ख़िलाफ़ हों, अथवा हाल ही के लैंड अक्विज़िशन एंड रीसेटलमेंट ऐक्ट 2015 (Land Acquisition and Resettlement Act 2015) के ख़िलाफ़ हों - सभी को भारी सैन्य दमन का सामना करना पड़ा है।
इन सब को बदलने के लिये, सर्वप्रथम, जिसे चुनौती दिये जाने की ज़रूरत है, वह है पूँजीवाद की जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता। खनन क्षेत्रों में पर्यावरणीय हिंसा को कम किया जा सकता है यदि हम ऊर्जा के वैकल्पिक और ज़्यादा पोषणीय श्रोतों पर ध्यान दें। यह चुनौती चाहे जितनी असाधारण दिखती हो, मगर यह निश्चित रूप से संभव है।
यह ध्यान रखना होगा कि, इस परियोजना में अंतर्निहित प्रकृति और औरत दोनो के ही ख़िलाफ़ हिंसा की कहीं ज़्यादा गहरी जड़ें और सम्पर्क-सम्बंध हैं जिनका खुलासा किये जाने और उन्हें विकास पर वृहत्तर विमर्श का हिस्सा बनाये जाने की ज़रूरत है।
वन्दना शिवा और मारिया मियेस जैसी फ़ेमिनिस्ट लम्बे अरसे से पितृसत्तात्मक और पर्यावरणीय हिंसा के विस्फोटों के परस्पर अंतर्संबंधों पर बल देती रही हैं। ज़मीन से जीवन का तब तक विदोहन करते रहना, जब तक कि वह पूरी तरह से मृत न हो जाये, और औरत के शरीर पर तब तक हमले करते रहना जब तक कि उनकी प्रतिरोध क्षमता पूरी तरह मृत न हो जाये - ये दोनो ही वे प्रक्रियायें हैं जो भारत के "अति उत्पादक" खनन क्षेत्रों में निरंतर सह अस्तित्व में रहती हैं। छत्तीसगढ़ में बेदख़ली, जैसा कि हमने देखा, साझा संपदाओं (commons) और औरत, जो सबसे बढ़-चढ़ कर इन साझा संपदाओं की देखभाल और संरक्षण करती है, दोनो के विनाश पर निर्भर है।
चूँकि पितृसत्तात्मक और पर्यावरणीय हिंसा परस्पर अंतर्गुँथित हैं, इनके विरुद्ध संघर्षों को भी अनिवार्य रूप से साथ आना होगा। प्रचलित विमर्श ने शातिर चतुराई से जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ संघर्ष को पितृसत्तात्मक हिंसा के ख़िलाफ़ फ़ेमिनिस्ट संघर्ष से अलग कर रखा है। हमें इनके परस्पर अंतर्गुँथन के लिये हर संभव प्रयास करना होगा: बिना पर्यावरणवाद के कोई फेमिनिज़्म नहीं, बिना फेमिनिज़्म के कोई पर्यावरणवाद नहीं। दूसरे शब्दों, वह चीज़, जिसे हमें बनाने और सुदृढ़ करने की ज़रूरत है, वह है - तर्कसंगत एकजुटता, जिसके बिना हमारे संघर्ष बिखरे हुए और निष्प्रभावी बने रहेंगे।
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