War & Peace

यमन के खिलाफ युद्ध में पश्चिम की अभी भी संलिप्त है

यूएस - और साथ-ही-साथ फ्रांस और जर्मनी जैसी यूरोपी शक्तियाँ भी - यमन को हथियार बेचना और वहाँ की मानवीय महात्रासदी की आग में घी डालना जारी रखे हुए हैं।
जब कि पश्चिम की सरकारें यमन की एक समूची पीढ़ी के व्यवस्थित क़त्लेआम का समर्थन कर रहीं हैं, पूरी दुनिया से इसके प्रतिरोध में आंदोलन गोलबंद हो रहे हैं।

पिछले वर्ष के अंत में, अपने प्रशासन के अंतिम दिनों में, डॉनल्ड ट्रम्प ने कोई आश्चर्यजनक तो नहीं, मगर एक भयावह घोषणा की : संयुक्त राज्य, संयुक्त अरब अमीरात को $23 बिलियन की अभूतपूर्व कीमत के बम, ड्रोन,और लड़ाकू जेट विमान बेचने पर सहमत हुआ है, इसके बावजूद - या फिर इसके चलते ही कि अमेरिकी हथियारों का लगातार इस्तेमाल यमन में अवर्णनीय रूप से भयावह अत्याचारों के लिये हो रहा है।

त्रासदी यह है कि पश्चिम की संलिप्तता की चर्चा किए बिना यमन में हो रहे मानवीय महाविनाश की बात हो ही नहीं सकती। राजनीतिक नियंत्रण की घरेलू प्रतिद्वंदिता की कोख से जन्म लेने वाले और बर्बर स्तर पर पहुँच चुके गृह युद्ध को विदेशी ताकतों के हस्तक्षेप ने कभी नहीं रुकने-खत्म होने वाले कत्लेआम की कत्लगाह में बदल दिया है।

2014 में युद्ध शुरू होने के बहुत पहले से ही संयुक्त राज्य का यमन में सक्रिय और विनाशकारी प्रभाव रहा है। बुश प्रशासन से शुरुआत कर के ओबामा और ट्रंप प्रशासन तक निर्बाध-अनवरत रूप से चले आ रहे अमेरिकी ड्रोन अभियान ने अकेले येमन में 2004 से फरवरी 2020 के बीच लगभग 1389 लोगों की जानें ली हैं।

इसलिये जब 2015 में, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात की अगुवाई वाले गठबंधन ने युद्ध में हस्तक्षेप शुरू किया, अमेरिका अपने समर्थन का हाथ बढ़ाने का अवसर लपकने के लिए कूद पड़ा। जल्दी ही पश्चिम से ले कर खाड़ी तक, अमेरिकी सहयोगियों का शह-संरक्षण अभिभूत कर देने वाले स्तर तक पहुँच गया। अपने निर्णय को उन्होंने यह कहते हुए न्यायसंगत ठहराया " [[यह] खाड़ी में ईरानी विस्तार को अवरुद्ध करने और राजशाही के पिछवाड़े में मानवीय महात्रासदी को रोकने के लिये सऊद का न्याय और तर्कसंगत प्रत्युत्तर था।](https://studies.aljazeera.net/en/positionpapers/2015/03/2015326181012294360.html)"

इसपर विश्वास कर पाना कठिन है कि सऊदी हस्तक्षेप यमन महाविध्वंस रोकने के लिये जरूरी था। इसपर विश्वास करना और भी कठिन है कि ओबामा प्रशासन को इस हस्तक्षेप से जल्दी ही होने वाले महाविध्वंस की पूरी जानकारी नहीं थी। जैसा कि भूतपूर्व ओबामा प्रशासन के अधिकारी रॉबर्ट माले ने बाद में स्वीकार किया, उस समय संयुक्त राज्य की चिंता यह थी कि, अरब वसंत के बाद, और ईरान के साथ परमाणु डील वार्ता के जारी रहते हुए, सऊदी अरेबिया के साथ "दशकों पुरानी दोस्ती" टूटने के कगार पर थी। माले के अनुसार "इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता" कि व्यापक महाविध्वंस की त्रासदी "इसका बहुत, बहुत संभावित परिणाम था" - मगर सऊदी अरेबिया को खुश रखना ज़्यादा महत्वपूर्ण था।

त्रासदी के ये अनुमान-आकलन जल्दी ही सच में बदलने वाले थे। जल्दी ही यूएस और यूके दोनो ने साजो-सामान, खुफिया सूचनातंत्र और कूटनीतिक सहयोग देना शुरू कर दिया, जब कि वे, जर्मनी,फ्रांस और अन्य, हस्तक्षेपकारी गठबंधन के लिए हथियारों की भरपूर आपूर्ति सुनिश्चित करने लगे। इस अभिभूत कर देने वाले और बिना शर्त समर्थन की शह पर, गठबंधन को नागरिक आबादी के खिलाफ उन भयावह अपराधों को दुहराते जाने में कोई परेशानी-संकोच नहीं था, जिनमे - एक ऐसे देश के खिलाफ ज़मीनी, समुद्री और हवाई ब्लाकेड कर के व्यापक भुखमरी को हत्या के हथियार के रूप में इस्तेमाल करना भी शामिल था, क्योंकि जो युद्ध के पहले बहु यमन अपनी भोजन ज़रूरतों का 90% से ज्यादा आयात करता रहा था। स्पष्ट शब्दों में, यूएस और यूके की मदद के बिना इनमें से बहुत सारे अत्याचार कभी संभव नहीं हो सकते थे। इस बीच, अन्य पश्चिमी राष्ट्रों ने निर्णायक कूटनीतिक सहयोग प्रदान किया, जिससे खाड़ी की सर्वसत्तावादी राजशाहियों के साथ व्यापार पर कोई आंच नहीं आई, और हथियारों की बिक्री के भारी-भरकम व्यापार में हस्तक्षेप से भी बचे, बल्कि अक्सर सक्रिय रूप से उसे प्रोत्साहित किया।

यमन की आबादी के लिये, गठबंधन के हस्तक्षेप ने त्रासदी का भयावह क़हर बरपाया है। संघर्ष के सालों बाद भी, अभी दो करोड़ चालीस लाख लोगों को किसी न किसी रूप में मानवीय सहायता की ज़रूरत है। यूनाइटेड नेशन्स डेवलपमेंट प्रोग्राम (UNDP) के लिये "पॉर्डी सेंटर" की प्रसिद्ध रिपोर्ट के अनुसार, मार्च 2015 से लगभग 3,10,000 लोग इस संघर्ष में मारे जा चुके हैं।

पिछले साल, पहले से ही भयावह रूप ले चुकी यह मानवीय त्रासदी और भी गहन हो गयी। संघर्षों के और भी घनीभूत होने, पर्यावरणीय विनाश - बाढ़ के चलते 3,00,000 से ज्यादा लोगों के विस्थापित होने - और एक ऐसे देश में कोरोना वायरस ने, जहां स्वास्थ्य सेवा के नाम पर शायद ही कुछ बचा रह गया हो, सभी ने घातक भूमिका अदा की है। इस पृष्ठभूमि में, संयुक्त राष्ट्र के कार्यक्रम ही वे एकमात्र सम्बल-साधन हैं जिन पर लाखों लोग अपने जीवन अस्तित्व के लिये निर्भर हैं।

परंतु विद्यमान सहायता पर्याप्त नहीं है। सऊदी अरब और यूएई द्वारा वित्तीय सहायता कम कर दिये जाने के चलते, संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से “ दशकों में देखे गये दुनिया के सबसे भयावह अकाल” से बचाने में मदद के लिये आगे आने का लगातार आग्रह कर रहा है।

मगर पश्चिम ने संयुक्त राष्ट्र के आह्वान पर कोई ध्यान नहीं दिया है। आँकड़े अपनी कहानी खुद कहते हैं : संयुक्त राष्ट्र द्वारा वांक्षित मानवीय सहायता राशि का आधे से भी कम यमन को उपलब्ध कराया जा सका है। पैमाने के आकलन के लिये, बची हुई अपेक्षित राशि - $1.7 बिलियन - की उन दसियों बिलियन डॉलर से तुलना कीजिए जितनी कीमत के हथियार पश्चिम हर साल गठबंधन को बेचता है।

संक्षेप में, पश्चिम ने न केवल येमन की धधकती आग पर पेट्रोल डाला है - उसने फायर होज के लिये पानी की आपूर्ति भी काट दी है।

मगर येमन के लिये सारी उम्मीदें अभी भी खत्म नहीं हुई हैं। जब कि पश्चिमी राष्ट्रों ने एक समूची पीढ़ी के व्यवस्थानिक क़त्लेआम का समर्थन किया है, इसके प्रतिरोध के लिये पूरी दुनिया से आंदोलनों की गोलबंदी हो रही है। कॅम्पेन अगेन्स्ट आर्म्स ट्रेड (CAAT) अभियान ब्रिटिश सरकार के हर संभव प्रयासों के बावजूद सऊदी अरब को हथियारों की बिक्री को अस्थाई रूप से रोक पाने में सफल रहा। इतालवी गोदीबंदर कामगारों (dockworkers) ने सीधी कार्यवाही करते हुए सऊदी अरब को भेजे जा रहे हथियारों को ले कर जाने वाले जहाज पर लदाई से इंकार कर दिया। पत्रकार ज़माल खाशोग्गी की हत्या के बाद बने दबाव के चलते एंजेला मोर्कल की कंजर्वेटिव सरकार को सऊदी अरब के खिलाफ प्रतिबंध (embargo) लगाने की घोषणा के लिये मजबूर होना पड़ा। (हालांकि मार्कल सरकार को यूएई को अभी भी हथियार बेचने में कोई संकोच-परेशानी नहीं है।)

इस लड़ाई का एक महत्वपूर्ण हिस्सा संयुक्त राज्य में लड़ा जा रहा है, जहां ज़मीनी स्तर के (grassroots) लगातार दबाव ने हथियार उद्योग, युद्धोन्माद ग्रस्त विदेश नीति प्रतिष्ठान, और सऊदी/ अमीराती लॉबियों की जड़ जमायी हुई ताक़तों को पीछे धकेलते हुए डेमोक्रेटिक पार्टी को ओबामा प्रशासन की तुलना में कहीं ज़्यादा प्रगतिशील अवस्थिति लेने के लिये मजबूर किया है। ट्रम्प प्रशासन के दौर में यूएस कांग्रेस ने कई बार यूएई और सऊदी अरब को की जा रही हथियार बिक्री के खिलाफ वोट किया। हालांकि ये सभी अंततः वीटो कर दिये गये, मगर नये बाइडन प्रशासन से, जिसका स्पष्ट चुनाव अभियान वायदा "येमन के युद्ध में यूएस की संलिप्तता का अंत" रहा है, बदलाव के एक अवसर की उम्मीद बनती है। निश्चित रूप से प्रतिष्ठान, और बाइडन प्रशासन की कॉरपोरेट परस्त राजनीति इस बदलाव की अगुवाई नहीं करने जा रही है, मगर फिर भी सऊदी अरब के साथ अमेरिका के संबंधों पर पुनर्विचार की संभावना गत कई वर्षों की अपेक्षा इस बार ज्यादा है।

आशावादिता के लिये कारण हैं, मगर उसी के साथ सतर्क रहने के लिये भी। पश्चिमी अभिजात्य खुद से कभी भी सैन्य-औद्योगिक संकुल (मिलिट्री-इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स) के हितों को चुनौती नहीं देगा। केवल जन गोलबंदी ही उन्हें ऐसा करने के लिये मजबूर कर सकती है। ऐसी जन गोलबंदी का यही समय है : यमन के लोग अब इससे ज़्यादा इंतज़ार नहीं कर सकते।

ईसा फेरेरो, स्पेनी ऊर्जा इंजीनियर और पश्चिम की विदेश नीति के विशेषज्ञ हैं। वे इसके पहले येमन पर प्रोग्रेसिव इंटरनेशनल के वायर पार्टनर ओपेन डिमॉक्रेसी के लिये लिख चुके हैं।

Available in
EnglishPortuguese (Brazil)FrenchGermanSpanishItalian (Standard)TurkishPortuguese (Portugal)Hindi
Author
Isa Ferrero
Translators
Vinod Kumar Singh and Surya Kant Singh
Date
14.01.2021
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