Economy

केन्या वासी एक और आईएमएफ कर्ज से क्यों डरते हैं

पिछले आईएमएफ क़र्ज़ों के भयावह प्रभावों ने बहुसंख्यक केन्या वासियों को स्पष्ट कर दिया है कि एक और कर्ज विनाशकारी होगा।
चूँकि केन्या वित्तीय संकट की चपेट में है, सरकार ने आईएमएफ को वापस केन्या में आमंत्रित किया है।मगर वे केन्या वासी, जो 1980 और 1990 दशक के आईएमएफ -विश्व बैंक ढांचागत समायोजन कार्यक्रमों से किसी तरह अपना अस्तित्व बचा सके हैं, निजीकरण, मुक्त बाज़ारों और विनियमन के भूत से बिल्कुल सही डर रहे हैं। किसी भी प्रकार के विरोध-प्रतिरोध के शमन के लिए, केन्या की सरकार अब विरोध व असहमति के अपराधीकरण की नीति पर चल रही है।

मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि केन्या के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के किसी कर्ज का विरोध केन्या के प्राधिकारियों द्वारा एक आपराधिक कार्यवाही के रूप में देखा जाएगा। मगर अप्रैल की शुरुआत में ठीक यही हुआ, जब एक्टिविस्ट मुतेमी कियामा को "डिजिटल उपकरणों के दुरुपयोग", "राष्ट्रपति पद की गरिमा पर चोट", "सार्वजनिक दुर्व्यवस्था फैलाने" और अन्य अस्पष्ट तथ्यहीन शब्दावलियों वाले अपराधों के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया। मुतेमी की गिरफ़्तारी राष्ट्रपति ऊहूरू केन्याटा की ट्विटर पर इस शीर्षक के साथ फ़ोटो पोस्ट करने के चलते की गयी थी : " दुनिया भर को यह सूचित किया जाता है .....कि यह व्यक्ति, जिसके चित्र और नाम ऊपर दिए गए हैं, रिपब्लिक ऑफ़ केन्या के नागरिकों की ओर से कार्य अथवा व्यवहार करने के लिए अधिकृत नहीं है, और यह भी कि राष्ट्र और उसकी भावी पीढ़ियाँ उसके द्वारा लिए जाने वाले बुरे क़र्ज़ों और/ अथवा उधारी के किन्ही भी दुष्प्रभावों अथवा शास्तियों के लिए उत्तरदाई नहीं होंगी।" उसे KSh.500,000 की नक़द ज़मानत पर इस आदेश के साथ रिहा किया गया कि वह अपने सोशल मीडिया प्लेटफार्मों का उपयोग नहीं करेगा और न ही कोविड-19 से संबंधित क़र्ज़ों के बारे में कुछ भी बोलेगा।

मुतेमी उन दो लाख से ज़्यादा केन्या वासियों में से एक है जिन्होंने आईएमएफ द्वारा केन्या को दिए जाने वाले KSh.257 बिलियन (अमेरिकी $2.3 बिलियन) कर्ज को रोकने के लिए दिए गए ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये हैं, जिसे जाहिरा तौर पर देश को कोविड-19 के नकारात्मक आर्थिक प्रभावों से बचाने के लिए लिया गया है। केन्या अकेला राष्ट्र नहीं है जिसके नागरिकों ने आईएमएफ कर्ज का विरोध किया है।आईएमएफ क़र्ज़ों के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन कई देशों में चल रहे हैं, जिनमे अर्जेंटीना भी है, जहां लोग 2018 में सड़कों पर उतर पड़े थे, जब राष्ट्र के नाम पर आईएमएफ से US$50 बिलियन का कर्ज लिया गया था। 2016 में ईजिप्ट के प्राधिकारियों को ईंधन सब्सिडी समाप्त करने के आईएमएफ निर्देश प्रेरित निर्णय के विरोध में प्रदर्शनों के बाद तेल की क़ीमतें घटाने के लिए मजबूर होना पड़ा था। इसी तरह के प्रदर्शन जॉर्डन, लेबनान, और इक्वाडोर में भी हाल के वर्षों में हुए हैं।

आख़िर क्यों किसी देश के नागरिकों को आईएमएफ जैसी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्था द्वारा दिए जाने वाले कर्ज के विरोध में उतरना पड़ता है ? उन केन्या वासियों के लिए, जो 1980 और 1990 दशक के आईएमएफ- विश्व बैंक ढांचागत समायोजन कार्यक्रमों (SAPs) से अपने को बचा (या बाल-बाल बचा) सके हैं, इसका उत्तर बिल्कुल स्पष्ट है। इन SAPs कार्यक्रमों के साथ भयावह रूप से कठोर शर्तें जुड़ी थीं, जिसके चलते सिविल सेवाओं में भारी पैमाने पर छँटनी हुई और स्वास्थ्य व शिक्षा जैसी आवश्यक सेवाओं से सब्सिडी समाप्त हो गयी, जिससे लोगों की तकलीफ़ों और अनिश्चितताओं में वृद्धि हुई, विशेषकर मध्यम-और न्यून आय समूहों के अंदर। ढांचागत समायोजन से गुज़रने वाले अफ्रीकी राष्ट्रों को जिस दौर से गुजरना पड़ा था, उसे अक्सर " गुमशुदा विकास के दशक" कहा जाता है क्योंकि कमर कसने वाले उपायों ने विकास के सारे कार्यक्रम रोक दिए थे और आर्थिक अवसरों की छंटनी कर दी थी।

इसके अतिरिक्त, कर्ज लेने वाले अफ्रीकी राष्ट्रों को आर्थिक नीति के मामले में अपनी स्वतंत्रता खो देनी पड़ी। अब विश्व बैंक और आईएमएफ जैसे साहूकार ही राष्ट्रीय आर्थिक नीति का निर्धारण कर रहे थे - उदाहरण के लिए, बजट प्रबंधन, विनिमय दरों, और अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र की भागीदारी जैसे मामलों का निर्धारण कर के - वे वस्तुतः उन देशों के वास्तविक नीति व निर्णय प्राधिकारी बन गए जिन्होंने उनसे कर्ज लिए थे। यही कारण था कि 1980 और 1990 के दशकों में जब कभी भी विश्व बैंक अथवा आईएमएफ का प्रतिनिधिमंडल नैरोबी पहुँचता, केन्या वासियों की साँसे अटक जाया करती थीं।

उन दिनों ( 1979 में तेल क़ीमतों की उछाल के चलते अधिकांश अफ्रीकी राष्ट्रों को आयात बिल वृद्धि और निर्यात आय ह्रास के दौर से गुजरना पड़ा था), इन वित्तीय संस्थानों के नेताओं का उतना ही आतंक हुआ करता था, जितना अधिनायकवादी केन्याई राष्ट्रपति डैन्यल आरप मोई का, क्योंकि अपनी कलम की नोक भर से वे जब चाहें रातो-रात केन्याई मुद्रा का अवमूल्यन कर सकते थे, और भारी संख्या में सिवल सेवकों की सेवाएं समाप्त कर सकते थे। जैसा कि केन्याई अर्थशास्त्री डेविड न्दी ने हाल ही में लिंडा कातिबा अभियान द्वारा आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में इंगित किया, जब भी आईएमएफ दरवाज़ा खटखटाता हुआ आता है, तात्विक रूप से इसका अर्थ देश का " रिसीवरशिप के अधीन" होना है। देश अब अपनी खुद की आर्थिक नीतियों को निर्धारित करने का दावा नहीं कर सकता। मूलतः राष्ट्रों की अपनी संप्रभुता नष्ट हो जाती है, यह एक ऐसा तथ्य है जो उन टेक्नोक्रेटों को आगाह करता है जो ऐसे कर्ज लेने के लिए दौड़ पड़ते हैं।

राष्ट्रपति मवाई किबाकी ने जब 2002 में पदभार ग्रहण किया, उसने विश्व बैंक और आईएमएफ से दूरी बनाए रखते हुए चीन से बिना किन्हीं कठोर शर्तों के इंफ्रास्ट्रक्चर क़र्ज़ों को प्राथमिकता देने की नीति ली। किबाकी की इस " पूर्व की ओर देखो" आर्थिक नीति ने ब्रेट्टन वुड्स संस्थाओं और पश्चिमी साहूकारों को सशंकित कर दिया जिनका अब तक देश के विकास नीतियों और परियोजना तंत्र में नियंत्रणकारी दख़ल था। मगर किबाकी के इस नीतिगत निर्णय ने केन्या वासियों में गर्व और स्वायत्तता की भावना का संचार किया, जिसे दुर्भाग्यवश उहुरू और उसके भ्रष्ट व अक्षम दलाल विनष्ट कर के मनमाना कर्ज लेने के अभियान पर निकल पड़े थे। इन क़र्ज़ों में KSh.692 बिलियन (लगभग $7 बिलियन) मूल्य का विशाल यूरोबांड शामिल है, जिसका अर्थ प्रत्येक केन्या वासी के सर पर Sh.137,000 का कर्ज है जो आठ साल पहले के बोझ का तीन गुना है जब जूबिली सरकार सत्ता में आई थी। पिछले वर्ष के अंत तक, केन्या का सकल कर्ज उसके सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के 70 प्रतिशत के आसपास था - 2015 के अंत में समूचे कर्ज बोझ से 50% अधिक।विदेशी क़र्ज़ का यह भारी भरकम बोझ केन्या जैसे देश के लिए घातक सिद्ध हो सकता है जिसके लिए विदेशी मुद्रा में कर्ज लेने की मजबूरी है।

जूबिली सरकार ने हमें विश्वास दिलाया कि, यह तथ्य कि आईएमएफ इस कर्ज के लिए सहमत है, इस बात का संकेत है कि राष्ट्र का आर्थिक स्वास्थ्य उत्तम है। मगर जैसा कि न्दी ने बताया, सत्य अक्सर इसका ठीक उल्टा होता है : आईएमएफ किसी भी देश में ठीक इसीलिए आता है कि वह देश वित्तीय संकट में होता है।केन्या के मामले में, यह संकट जूबिली प्रशासन द्वारा लिए जाने वाले अनाप-शनप क़र्ज़ों के चलते नियंत्रण से बाहर हो गया जिसके चलते केन्या पर क़र्ज़ों का बोझ KSh.630 बिलियन (आज की विनिमय दर पर लगभग $6 बिलियन) से, जब किबाकी ने 2002 में पदभार सम्भाला था, बढ़ कर आज KSh.7.2 ट्रिलियन (लगभग US $70 बिलियन) के अविश्वसनीय स्तर पर पहुँच चुका है। इस भारी भरकम क़र्ज़ का कोई परिणाम दिखाई नहीं दे रहा है, सिवाय एक स्टैंडर्ड गेज रेलवे (SGR) के, जिसका वित्त पोषण चीन से लिए गए क़र्ज़ों से हुआ है, और यह परियोजना भी अपना कर्ज खुद भर सकने की स्थिति में नहीं है। जैसा कि एक स्थानीय दैनिक के एक लेख में इंगित किया गया, क़र्ज़ों की यह रक़म मोम्बासा से नैरोबी तक 17 SGRs अथवा नैरोबी से थिका तक जैसे 154 सुपर राजमार्ग बनाने के लिए पर्याप्त थी। त्रासदी यह है कि इनमे से ज़्यादातर क़र्ज़ों का कोई हिसाब-किताब नहीं है ; वास्तव में केन्या वासियों की बड़ी संख्या यह मानती है कि ये क़र्ज़े व्यक्तिगत जेबें भरने के लिए लिए गए हैं। ऊहूरू केन्याटा खुद स्वीकार करता है कि सरकार के अंदर भ्रष्टाचार के चलते केन्या को प्रतिदिन KSh.2 बिलियन का नुकसान हो रहा है। ऐसी नुकसान हुई कई बिलियन राशियाँ वास्तव में क़र्ज़ों की हो सकती हैं।

कठोर शर्तों के साथ आइएमएफ कर्ज अक्सर राष्ट्र की आर्थिक तकलीफ़ों के एकमात्र समाधान के रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं - कमर कसने का उपाय, जो देश की अर्थव्यवस्था में राजस्व बढ़ाने और ख़र्चों को घटाने के माध्यम से वित्तीय अनुशासन का संचार करेगा। इसके विपरीत, बहुतों का तर्क है कि, इन क़र्ज़ों का वास्तविक उद्येश्य, राष्ट्रीय स्तर पर बड़े और मूलभूत नीतिगत परिवर्तन को अंजाम देना है - परिवर्तन, जो हमारे समय के नव उदारी मूल्यों को प्रतिबिंबित करते हैं, जिनकी पहचान निजीकरण, मुक्त बाज़ार, और विनियमितीकरण है।

पहला दुर्भाग्यपूर्ण संकेत, कि केन्या सरकार अब एक विनाशकारी आर्थिक रास्ते पर चलने जा रही है, तब मिला, जब आईएमएफ प्रमुख क्रिस्टीन लेगार्ड ने 2013 में राष्ट्रपति उहुरू के चुने जाने के कुछ ही समय बाद केन्या का आधिकारिक दौरा किया। मुझे याद है, मैंने उसी समय ट्वीट किया था कि यह शुभ संकेत नहीं है ; यह इस बात का इशारा है कि आईएमएफ केन्या को वापस अपने चंगुल में लेने की तैयारी कर रहा है।

नाओमी क्लीन की किताब, " दि शॉक डॉक्ट्रिन" दिखाती है कि किस तरह आज का पूंजीवाद ,जिसे वह "डिज़ैस्टर कैपिटलिज़म" का नाम देती है, विशेषकर आईएमएफ को, प्राकृतिक अथवा मानव निर्मित आपदाओं या भारी पैमाने पर बाहरी क़र्ज़ों की मार झेल रहे राष्ट्रों पर "शॉक थेरेपी" लागू करने की अनुमति देता है। इसका परिणाम अनावश्यक रूप से राजकीय संपदा का निजीकरण, सरकारी नियम-नियंत्रण की समाप्ति, सिविल सेवकों की बड़े पैमाने पर छँटनी, और सब्सिडी की समाप्ति या बड़े पैमाने पर कटौती में निकलता है।ये सभी ग़रीबी और असमानता बढ़ाने वाले हैं और बढ़ाते हैं। क्लीन ख़ास तौर पर उस विचारधारा की प्रबल आलोचक है जिसे "शिकागो स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स" के नाम से जाना जाता है और जो लूट-लालच, भ्रष्टाचार, सार्वजनिक संसाधनों की चोरी, और व्यक्तिगत सम्पदा वृद्धि को न्यायसंगत ठहराता है जब तक कि वे मुक्त बाज़ारों और नव उदारवाद का काम आगे बढ़ाते रह सकते हैं। वह दिखाती है कि किस तरह, लगभग हर देश में, जहां आईएमएफ की "दवा" पिलाई गयी है, असमानता का स्तर भयावह रूप से बढ़ा है, और ग़रीबी ने व्यवस्थानिक स्वरूप ले लिया है।

कभी-कभी आइएमएफ खुद किसी देश में छद्म संकट की स्थितियाँ उत्पन्न कर देता है, जिससे उसे आईएमएफ बेलआउट कर्ज के लिए मजबूर किया जा सके। या फिर इसके उलट, जानबूझ कर सावधानी पूर्वक गढ़े - हेर-फेर किए गए आँकड़ों के माध्यम से वह देश की अर्थव्यवस्था को बहुत बेहतर स्थिति में दिखाने लगता है, जिससे वह देश निश्चिंत हो कर और ज़्यादा कर्ज ले सके। जब वह राष्ट्र क़र्ज़ों की अदायगी नहीं कर पाता, जैसा कि अधिकांश मामलों में होता है, तब आइएमएफ और भी कठोर मितव्ययिता उपाय ( जिसे " कंडिश्नैलिटीज" भी कहते हैं) थोप देता है, जो और भी अधिक ग़रीबी और असमानता जनती है।

ढांचागत परियोजनाओं के लिए आईएमएफ और विश्व बैंक द्वारा दिए जाने वाले क़र्ज़ों का भरपूर फ़ायदा पश्चिमी कारपोरेशनों को भी पहुँचता है। निजी कंपनियाँ विशेषज्ञों की नियुक्ति इस बात के लिए करती हैं कि, उनके माध्यम से इन वित्तीय संस्थाओं द्वारा दिए जाने वाले क़र्ज़ों से वित्त पोषित होने वाली ढांचागत परियोजनाओं के लिए ये कंपनियां सरकारी ठेके हासिल कर सकें। अमेरिका जैसे धनी देशों की कंपनियाँ अक्सर ऐसे लोगों को काम पर लगाती हैं जो उनकी ओर से बोली लगाते हैं। अपनी अंतर्राष्ट्रीय " वर्ड- ऑफ़- माउथ बेस्टसेलर" किताब " कन्फेशन्स ऑफ़ ऐन एकनामिक हिटमैन" में जॉन पर्किन्स दिखाता है कि किस तरह से 1970 के दशक में, जब वह एक अंतर्राष्ट्रीय कंसल्टिंग फर्म के लिए काम करता था, उसे बताया गया था कि उसका काम "विश्व बैंक, यूएस एजेंसी फॉर दि इंटर्नैशनल डिवेलप्मेंट, और अन्य विदेशी संस्थाओं से पैसा दुह कर विशाल कारपोरेशनों के ख़ज़ानों और चंद गिने-चुने घरानों की जेबों में पहुँचाना था, जो समूचे पृथ्वी ग्रह के संसाधनों पर नियंत्रण रखते हैं।"

इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए तरीकों और उपकरणों में, उसके नियोजक ने पूरी बेशर्मी से क़बूल किया कि, "जालसाज़ी से तैयार की गयीं वित्तीय रिपोर्ट, चुनावों में हेरा-फेरी और धांधली, दलाली और घूस, जबरिया वसूली, सेक्स, और हत्या" सब कुछ शामिल हो सकते हैं। पर्किन्स दिखाता है कि किस तरह 1970 दशक के वर्षों में वह पनामा से ले कर सऊदी अरबिया तक तमाम देशों में 'डील' की दलाली का माध्यम बनता था जहां वह नेताओं को उन परियोजनाओं को स्वीकार कर लेने के लिए राज़ी कराता था जो उनकी अपनी जनता के हितों के प्रतिकूल लेकिन अमेरिकी कारपोरेट हितों को भारी मुनाफ़ा पहुँचाने वाले थे।

"अंततः, वे नेता कर्ज के ऐसे जाल में पूरी तरह से फँस गये जहां कारपोरेट हितों के प्रति उनकी स्वामिभक्ति के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था। हम जब भी चाहते - अपनी राजनीतिक, आर्थिक या मिलिटरी जरूरतों के लिए उनसे काम ले सकते थे। बदले में, वे जनता के लिए औद्योगिक पार्क, पॉवर प्लांट, और हवाई अड्डे ला कर अपनी राजनीतिक स्थिति मज़बूत करते थे। इस तरह से अमेरिकी इंजीनियरिंग / कंस्ट्रक्शन कंपनियों के मालिक भरपूर मालामाल हो गए।" ऐसा एक सहकर्मी ने उसके यह पूछने पर बताया कि उसका जॉब इतना महत्वपूर्ण क्यों है।

केन्या वासियों को, जो पहले से ही कोविड-19 पेंडेमिक के कारण, जिसके चलते पिछले वर्ष लगभग बीस लाख जॉब औपचारिक क्षेत्र से समाप्त हो चुके हैं, वित्तीय संकट झेल रहे हैं, अब ठीक उस समय मितव्ययिता उपायों की मार झेलनी होगी जब उन्हें सरकारी सब्सिडी और सामाजिक सुरक्षा नेट की सबसे ज़्यादा जरूरत है।अल्प और मध्यकालिक दौर में SAPs का यह दूसरा सीज़न केन्या वासियों के जीवन को और भी ज़्यादा कष्टकारी बना देगा।

हमें इंतज़ार करना होगा और देखना होगा कि क्या सरकार के प्रति कुल मिला कर असंतोष आगामी 2022 के चुनाव नतीजों को प्रभावित कर पाता है या नहीं।बहरहाल, चाहे जो जीते, उसे लगातार बढ़ते कर्जभार और अपोषणीय पुनर्भुगतान अदायगी के संकट का सामना करना पड़ेगा जो राष्ट्रपति उहुरू केन्याटा की सबसे दीर्घकालीन कष्टदायक विरासत बन चुकी है।

रसना वाराह केन्या की एक लेखिका और पत्रकार हैं।इससे पहले वह युनाइटेड नेशन्स ह्यूमन सेटलमेंट्स कार्यक्रम (यूएन-हैबिटैट) की संपादक रही हैं।उन्होंने सोमालिया पर दो किताबें प्रकाशित की हैं - "वार क्राइम्ज़"(2014) और "मोगादिशु देन एंड नाउ"(2012) - और वह "UNsilenced"(2016), व "ट्रिपल हेरिटेज"(1998) की लेखिका भी हैं।

Available in
EnglishGermanPortuguese (Portugal)Portuguese (Brazil)FrenchItalian (Standard)Hindi
Author
Rasna Warah
Translators
Vinod Kumar Singh and Laavanya Tamang
Date
26.05.2021
Source
The ElephantOriginal article🔗
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