Labor

भारतीय श्रमिक के लिए श्रम संहिताओं (लेबर कोड्स) का क्या अर्थ है?

भारत की ये चार बड़ी श्रम संहिताएं (लेबर कोड्स) आज़ादी के बाद अब श्रमिकों के अधिकारों को अत्यंत कमजोर करती हैं।
अनुपालन को सुव्यवस्थित करने और व्यावसायिक दक्षता को बढ़ावा देने के लिए सुधारों के रूप में प्रस्तुत की गई इन संहिताओं (कोड्स) ने ट्रेड यूनियनों और विपक्षी दलों के राष्ट्रव्यापी विरोध को जन्म दिया है। ये कोड एक विवादित कानूनी इतिहास से उभरें हैं, जिन्हें राजनीतिक उथल-पुथल के बीच और बिना त्रिपक्षीय परामर्श के पारित किया गया। इन्हें लागू करने से राज्य-स्तरीय असमानताओं के बढ़ने और श्रम विनियमन में बाजार-संचालित प्रतिमानों को बढ़ावा मिलने का खतरा है, परिणामस्वरूप यूनियन इस बात की चेतावनी दे रही हैं कि इससे निजीकरण का मार्ग प्रशस्त करते हुए अनिश्चित रोजगार को संस्थागत रूप दिया जा रहा है।

शुक्रवार, 21 नवंबर 2025 को, केंद्रीय श्रम और रोजगार मंत्रालय ने चार श्रम संहिताओं (लेबर कोड्स) के लिए नियमों को अधिसूचित किया। इस बड़े बदलाव में 29 मौजूदा केंद्रीय श्रम कानूनों को समाहित करते हुए उन्हें खत्म कर दिया गया है।

ये संहिताएँ (कोड्स) – वेतन संहिता, 2019औद्योगिक संबंध संहिता, 2020सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020; और व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्य परिस्थितियाँ संहिता, 2020 – स्वतंत्रता के बाद भारत के श्रम कानूनों में सबसे बड़ा बदलाव दिखाती हैं।

जहां एक ओर सरकार का दावा है कि इन सुधारों से न सिर्फ़ “आसानी” बढ़ेगी, बल्कि अनुपालन को सरल बनाकर और सामाजिक सुरक्षा को सार्वभौमिक बनाकर "व्यवसाय करने की गति" भी बढ़ेगी, वहीं दूसरी ओर ट्रेड यूनियनों और विपक्षी दलों ने राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिए हैं। उन्होंने इस कदम को एकतरफ़ा थोपी जाने वाली कार्यवाही बताया है, ऐसी कार्यवाही जो मज़दूर वर्ग द्वारा मुश्किल से हासिल किए गए अधिकारों को खत्म करती है।

इस अधिसूचना का संदर्भ क्या है?

एक लंबे समय से चल रही प्रशासनिक अड़चन को खत्म करते हुए, संसद से पास होने के लगभग छह साल बाद ये कोड लागू हुए हैं। इनका कानूनी इतिहास राजनीतिक विवाद में निहित है। वेतन संहिता 2019 में पारित की गई, जबकि शेष तीन – औद्योगिक संबंध, सामाजिक सुरक्षा और ओ.एस.एच – सितंबर 2020 में पारित की गईं थीं।

खास बात यह है कि संसद ने एक संक्षिप्त सत्र में 2020 की इन संहिताओं (कोड्स) को मंजूरी दे दी थी, एक ऐसे समय में जब विपक्ष ने कृषि कानूनों पर सदन की कार्यवाही का बहिष्कार किया हुआ था। यह वही समय था जब सिटिज़नशिप अमेंडमेंट ऐक्ट (नागरिकता संशोधन अधिनियम - सी.ए.ए) और कोविड-19 महामारी के दबावों को लेकर बड़े पैमाने पर नागरिक अशांति फैली हुई थी।

आलोचकों ने इसमें त्रिपक्षीय परामर्श की कमी को एक प्राथमिक दोष के रूप में उद्धृत किया है। इंडियन लेबर कॉनफेरेंस (भारतीय श्रम सम्मेलन - आई.एल.सी) – वह शीर्ष तंत्र जहां सरकार, नियोक्ता और श्रमिक मिलकर नीति पर विचार-विमर्श करते हैं – 2015 के बाद से ही इसका आयोजन नहीं किया गया है। इस चूक की आलोचना सत्तारूढ़ दल के अंदर से भी की गई है। 

मार्च 2025 में, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के वरिष्ठ नेता और श्रम पर बनाई गई संसदीय स्थायी समिति के अध्यक्ष, बसवराज बोम्मई ने आई.एल.सी आयोजित करने में विफल रहने के लिए केंद्र सरकार की सार्वजनिक रूप से आलोचना की थी, और कहा था कि इस तरह की चूक श्रम सुधारों की लोकतांत्रिक वैधता को कमज़ोर करती है।

ये ‘कोड‘ क्यों और संघवाद के लिए इसके क्या निहितार्थ हैं?

विशिष्ट "अधिनियमों" की जगह समेकित "संहिताओं (कोड्स)" में स्थानांतरण मात्र एक बदलाव नहीं बल्कि एक संरचनात्मक आमूलचूल परिवर्तन है। 29 विविध कानूनों को मिलाकर, संसद ने "नियमों" के माध्यम से कार्यकारिणी (केंद्र और राज्य सरकारों) को पर्याप्त विधायी शक्तियां प्रभावी रूप से सौंपी हैं।

महत्वपूर्ण विवरण – जैसे कि न्यूनतम वेतन, सुरक्षा सीमा, या सामाजिक सुरक्षा सीमा की विशिष्ट गणना – जो पहले अधिनियमों के कठिन पाठ में शामिल थे, अब "नियमों" के भीतर डाल दिए गए हैं जिन्हें सरकार तत्काल संसदीय जांच के बिना सिर्फ अधिसूचना द्वारा बदल सकती है।

चूंकि ‘श्रम’ समवर्ती सूची का हिस्सा है, इसलिए इन संहिताओं (कोड्स) को अमल में लाने के लिए केंद्र सरकार के साथ ही राज्यों को भी नियम बनाने होंगे। हालांकि केंद्र सरकार ने इन संहिताओं (कोड्स) को अधिसूचित कर दिया है, लेकिन कानूनी परिदृश्य अभी भी बिखरा हुआ है। उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और गुजरात जैसे "व्यापार-अनुकूल" राज्यों ने दैनिक कार्य की सीमा बढ़ाने और सेल्फ-सर्टिफ़िकेशन (स्व-प्रमाणन) शुरू करने के लिए पहले से ही नियम बना लिए हैं।

इसके विपरीत, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में, जहां यूनियन की मज़बूत उपस्थिति है, नियमों को अंतिम रूप देने में देरी हुई है। यह एक "अनुपालन विषमता" पैदा करता है, जिससे अलग-अलग राज्यों में श्रम से संबंधित मानक काफी भिन्न हो सकते हैं। विश्लेषकों को डर है कि इससे "रेस टू द बॉटम (नीचे की ओर दौड़)" वाली स्थिति पैदा हो सकती है, जहां राज्य सबसे "लचीले" या विनियमित नियम बनाकर पूंजी को आकर्षित करने के लिए प्रतिस्पर्धा करेंगे, जिससे समान श्रमिक सुरक्षा का खात्मा हो जाएगा।

राज्य-श्रम संबंध कैसे विकसित हुए हैं?

यह अधिसूचना भारतीय राज्य के "संरक्षणवाद" से "सुविधा" की ओर हुए दार्शनिक बदलाव को दर्शाती है।

1947 के बाद, श्रम कानून – मसलन औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 और कारखाना अधिनियम, 1948 – इस आधार पर बनाए गए थे कि पूंजी और श्रम के बीच का संबंध स्वाभाविक रूप से असमान है। राज्य कार्यकाल की सुरक्षा सुनिश्चित करने, छंटनी को नियंत्रित करने और जन कल्याण को अनिवार्य बनाने के लिए हस्तक्षेप करता था, जिससे पूंजी की मनमानी शक्ति पर रोक लगाई जा सके।

हालांकि, 1991 के बाद उदारीकरण की दिशा में एक बड़ा बदलाव देखा गया। इंटरनेशनल मॉनेटेरी फंड (अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष - आई.एम.एफ) और विश्व बैंक जैसे अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों ने तर्क दिया कि भारत के "कठोर" श्रम कानून, विशेष रूप से छंटनी और प्रतिष्ठान के बंद होने से जुड़े कानून, निवेश में बाधा डालते हैं। 1999 में नियुक्त सेकंड नैशनल कमीशन ऑन लेबर (दूसरे राष्ट्रीय श्रम आयोग - एस.एन.सी.एल) ने इस दृष्टिकोण को औपचारिक रूप दिया।

एस.एन.सी.एल ने असंगठित क्षेत्र के लिए अलग से "अम्ब्रेला लेजिस्लेशन (छत्र विधान)" का प्रस्ताव करते हुए श्रम कानूनों को "युक्तिसंगत" बनाने की सिफारिश की, जिसका इशारा भर्ती करने (हायरिंग) और नौकरी से निकाले जाने (फायरिंग) से संबंधित प्रतिबंधों को आसान बनाने की तरफ था। ये नई संहिताएं (कोड्स) एस.एन.सी.एल के बताए रोडमैप को पूरा करती हैं। वे इस दृष्टिकोण को संस्थागत रूप देते हैं कि श्रम अधिकारों को बाजार की जरूरतों के अनुसार तय किया जाना चाहिए, जिससे श्रमिक, नियोक्ता और राज्य के बीच का सामाजिक अनुबंध पूरी तरह बदल जाएगा।

इन चार संहिताओं (कोड्स) में क्या शामिल है?

वेतन संहिता, 2019

इस संहिता (कोड) में न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 और बोनस भुगतान अधिनियम, 1965 सहित चार कानून शामिल हैं। मुख्य अस्पष्टता "न्यूनतम वेतन" में निहित है। यह संहिता (कोड) केंद्र सरकार को न्यूनतम वेतन तय करने का अधिकार देती है, जिसके नीचे कोई भी राज्य अपना न्यूनतम वेतन निर्धारित नहीं कर सकता। हालांकि, यह सरकार को रैप्टाकोस ब्रेट मामले (1992) में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित पोषण और खपत मानकों के लिए वैधानिक रूप से बाध्य नहीं करता। आलोचकों को डर है कि यह निर्णय गुज़ारे लायक मज़दूरी के बजाय गरीबी वाली मज़दूरी को संस्थागत बना सकता है।

संरचनात्मक रूप से, सेक्शन 2(वाई) ‘मजदूरी‘ की एक समान परिभाषा प्रस्तुत करता है, जिसमें यह अनिवार्य किया गया है कि भत्ते (जैसे एच.आर.ए या परिवहन) कुल पारिश्रमिक के 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकते। यदि ऐसा होता है, तो प्रोविडेंट फंड (भविष्य निधि - पी.एफ) और ग्रेच्युटी की गणना के लिए अतिरिक्त रकम को मूल वेतन में जोड़ दिया जाएगा। हालांकि इससे सामाजिक सुरक्षा का फंड बढ़ जाता है, लेकिन साथ ही कई कर्मचारियों का मासिक "टेक-होम" वेतन कम हो सकता है।

प्रशासनिक रूप से, हम कह सकते हैं कि सेक्शन 51 पारंपरिक "लेबर इन्स्पेक्टर (श्रम निरीक्षक)" की जगह "इन्स्पेक्टर-कम-फैसिलिटेटर (निरीक्षक-सह-सुविधाकर्ता)" की नियुक्ति की बात करता है। नाम का यह परिवर्तन भौतिक सत्यापन की तुलना में "वेब-आधारित" और "अनियमित" निरीक्षणों को प्राथमिकता देते हुए, प्रवर्तन से सलाहकार होने की ओर के एक कार्यात्मक बदलाव का संकेत देता है। इसके अलावा, यह संहिता (कोड) अपराधों के "समन्वय" की अनुमति देती है, जहां नियोक्ता अभियोजन से बचने के लिए शुल्क का भुगतान कर सकते हैं। आलोचकों का तर्क है कि यह अवैधता का मुद्रीकरण करता है, जिससे मजदूरी की चोरी, अपराध की बजाय एक प्रबंधनीय "व्यवसाय की लागत" में बदल जाती है।

औद्योगिक संबंध (आई.आर) संहिता, 2020

व्‍यवसाय संघ अधिनियम, 1926 और औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 को एक साथ लाते हुए, यह संहिता विवाद समाधान और कार्यकाल सुरक्षा को मौलिक रूप से बदल देती है। सबसे विवादास्पद मुद्दा ‘नौकरी पर रखने और निकालने (हायर एंड फायर)‘ के विस्तार से संबंधित है। पिछली व्यवस्था के तहत, 100 या उससे ज़्यादा श्रमिकों वाले प्रतिष्ठानों को श्रमिकों की छंटनी करने या प्रतिष्ठान को बंद करने के लिए सरकारी अनुमति की आवश्यकता थी। अध्याय X इस सीमा को 300 श्रमिकों तक बढ़ा देता है। उद्योगों के वार्षिक सर्वेक्षण के अनुसार, यह भारत की 90 प्रतिशत से अधिक औद्योगिक इकाइयों को जांच से छूट देता है, जिससे नियोक्ता अपनी मर्जी से श्रमिकों की छंटनी कर सकेंगे।

इन आसान मानदंडों को संतुलित करने के लिए, सेक्शन 83 एक "रीस्किलिंग फंड" की बात करता है, जिसके तहत नियोक्ताओं को हर निकाले गए श्रमिक के लिए 15 दिनों का वेतन देने की आवश्यकता होगी। यूनियनें इसे लंबी अवधि की नौकरी की सुरक्षा की जगह पर एक मामूली, एकमुश्त भुगतान बताकर खारिज करती हैं। सुरक्षा को और कमजोर करते हुए, सेक्शन 2(ओ) "निश्चित अवधि रोजगार" को वैधानिक मान्यता देता है, जिससे नियोक्ताओं को मुख्य बारहमासी कार्यों सहित किसी भी तरह के काम के लिए सिर्फ एक विशिष्ट अवधि के लिए ही श्रमिकों को काम पर रख सकने की अनुमति मिल जाती है। यह प्रबंधन को स्थायी कार्यकाल के लिए प्रतिबद्ध किए बिना अस्थायी कर्मचारियों के अनुबंधों को बार-बार नवीनीकृत करते रहने की सुविधा देता है।

यह संहिता (कोड) सामूहिक सौदेबाजी को भी प्रभावित करती है। सेक्शन 62 में कहा गया है कि सभी औद्योगिक प्रतिष्ठानों के श्रमिकों को हड़ताल से पहले 14 दिनों का नोटिस देना होगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि सुलह की कार्यवाही के दौरान हड़ताल पर रोक है। चूंकि हड़ताल की सूचना मिलते ही सुलह शुरू हो जाती है और राज्य इस प्रक्रिया को अनिश्चित काल तक बढ़ा सकता है, इसलिए वैध हड़ताल करने का कानूनी रास्ता प्रभावी रूप से बंद हो जाता है। इसके अलावा, "स्थायी आदेश" लागू करने की शर्त अब सिर्फ़ उन प्रतिष्ठानों पर लागू होती है, जिनके 300 या इससे ज़्यादा कर्मचारी हैं (पहले यह सीमा 100 की थी), जिससे छोटी इकाइयों में कानून का राज प्रभावी ढंग से खत्म हो जाएगा।

सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020

ई.पी.एफ अधिनियम सहित नौ कानूनों का विलय करते हुए, यह संहिता (कोड) पहली बार "गिग वर्कर्स" और "प्लेटफॉर्म वर्कर्स" को मान्यता देती है (सेक्शन 2(35))। हालांकि, यह उन्हें "कर्मचारी" के रूप में परिभाषित करने से चूक जाती है। नतीजतन, उबर या ज़ोमैटो जैसी एग्रीगेटर इकाइयां प्रोविडेंट फंड (भविष्य निधि - पी.एफ) जैसे मानक योगदान के लिए ज़िम्मेदार नहीं रहेंगी। इसके बजाय, संहिता (कोड) में एग्रीगेटर इकाइयों के वार्षिक कारोबार पर एक से दो प्रतिशत की लेवी द्वारा वित्तपोषित एक कल्याण निधि बनाने का प्रस्ताव है। इससे अधिकारों पर आधारित होने के बजाय सेस पर आधारित कल्याणकारी मॉडल बनता है। इसके अलावा, सेक्शन 142 पंजीकरण के लिए आधार को अनिवार्य करता है। माईग्रेंट वर्कफोर्स (प्रवासी कार्यबल) के बीच प्रचलित प्रलेखन की त्रुटियों को देखते हुए, आलोचकों का तर्क है कि इससे एक तकनीकी बाधा या "डिजिटल बहिष्कार" पैदा हो सकता है।

व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य (ओ.एस.एच) व कार्य परिस्थितियाँ संहिता, 2020

13 कानूनों की जगह लेते हुए, इस संहिता (कोड) में ‘फैक्ट्री’ (सेक्शन 2 (डब्ल्यू)) को फिर से परिभाषित किया गया है, जिसमें श्रमिकों की सीमा 10 से बढ़ाकर 20 (शक्ति के साथ) और 20 से बढ़ाकर 40 (शक्ति के बिना) कर दी गई है। इस विनियमन से हजारों छोटी विनिर्माण इकाइयां, जो अक्सर खराब सुरक्षा मानकों वाली जगहें होती हैं, कड़े नियमों के दायरे से बाहर हो जाती हैं। इसी तरह, कोड अब केवल उन ठेकेदारों पर लागू होता है जो 50 या उससे अधिक श्रमिकों को (20 से बढ़ाकर) नियुक्त करते हैं, जिससे अनुपालन से बचने के लिए प्रमुख नियोक्ता अपने कार्यबल को विभाजित करने के लिए प्रोत्साहित होंगे।

जबकि यह कोड आठ घंटे की दैनिक कार्य सीमा को बरकरार रखता है, लेकिन इसमें "स्प्रेड-ओवर" समय की अवधारणा को भी शामिल किया गया है, जिसे नियमों द्वारा परिभाषित किया जाना अभी बाकी है। यूनियनों को डर है कि इससे राज्य सरकारें लंबे ब्रेक की आड़ में कानूनी रूप से काम का समय 12 घंटे तक बढ़ा सकेंगी। इसके अतिरिक्त, सेक्शन 128 सरकार को एक साधारण अधिसूचना के माध्यम से संहिता (कोड) के प्रावधानों से किसी भी प्रतिष्ठान को छूट देने का अधिकार देता है, जिससे कार्यकारिणी को संसदीय अनुमोदन के बिना स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन (विशेष आर्थिक क्षेत्र) जैसे सेक्टर के लिए सुरक्षा कानूनों को निलंबित करने की अनुमति मिल जाती है।

श्रमिक संघ (ट्रेड यूनियन) कोड का विरोध क्यों कर रहे हैं?

इस अधिसूचना के बाद सेंट्रल ट्रेड यूनियन्स (केंद्रीय ट्रेड यूनियनों - सी.टी.यू) के संयुक्त मंच और संयुक्त किसान मोर्चा (एस.के.एम) ने तत्काल विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया। 

वे अपने विरोध तीन आधारों पर रखते हैं। 

  1. सबसे पहले, यह तर्क देते हुए वे प्रक्रियात्मक अवैधता का हवाला देते हैं कि बिना बहस के कानून पारित करना और इंडियन लेबर कॉनफेरेंस (भारतीय श्रम सम्मेलन - आई.एल.सी) आयोजित किए बिना उन्हें अधिसूचित करना इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइज़ेशन (अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन - आई.एल.ओ) के कन्वेंशनों का उल्लंघन है।
  2. दूसरा, केंद्रीय ट्रेड यूनियनों (सी.टी.यू) का तर्क है कि हड़तालों पर प्रभावी रूप से प्रतिबंध लगाकर, स्थायी आदेशों को कमजोर करके और कार्यकाल की सुरक्षा को हटाकर, ये कोड श्रमिकों को "आभासी दासता (वर्चुअल स्लेवरी)" की स्थिति में ले जाते हैं, जिससे वे सामूहिक सौदेबाजी की शक्ति से वंचित हो जाएंगे।
  3. अंत में, ए.आई.पी.ई.एफ जैसी यूनियनों का तर्क है कि ये कोड निजीकरण के लिए ज़रूरी हैं, उनका कहना है कि सार्वजनिक क्षेत्र में श्रम सुरक्षा को समाप्त करना देनदारियां कम करने का एक रणनीतिक कदम है, जिससे राज्य की संपत्ति निजी खरीदारों के लिए अधिक आकर्षक हो जाती है।
Available in
EnglishSpanishPortuguese (Brazil)GermanFrenchItalian (Standard)ArabicHindiBengaliRussian
Author
Pavan Korada
Translators
Ajay Bharat Uniyal and ProZ Pro Bono
Date
15.12.2025
Source
The WireOriginal article🔗
श्रमIndia
Privacy PolicyManage CookiesContribution SettingsJobs
Site and identity: Common Knowledge & Robbie Blundell