ये वाक्यांश एक कहावत के रूप में नहीं पर एक चेतावनी के रूप में आज अवश्य याद आता है। जब दुनिया भर के देश एक घातक महामारी के सामाजिक, राजनैतिक, और आर्थिक प्रभावों से जूझ रहा है। जैसे आपातकालीन परिस्थिति का हवाला देते हुए सामान्य राजनैतिक गतिविधियों को बंद किया जा रहा है इससे हमें एक "अच्छे संकट" का किस प्रकार से लाभ उठाया जाता है इसके प्रति सचेत होना आवश्यक है।
हमने महामारी का फायदा उठाकर संसद की शक्तियों को कमजोर करने और फरमानों द्वारा शासन करने के प्रयास पहले ही देखे हैं । इसमें भारी हथियारों से लैस पुलिस या सेना की सड़क में उपस्थिति, कानून का उल्लंघन करने के लिए क़ैद की धमकियां, और असाधारण कार्यकारी शक्तियां शामिल हैं । अत्याधुनिक निगरानी प्रौद्योगिकियों के राज्य प्रायोजित उपयोग में वृद्धि के साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करते हुए नए क़ानूनों को अपनाया गया है, जिससे नागरिक स्वतंत्रताओं के लिए संभावित खतरा बढ़ गया है । स्पष्ट है कि महामारी की ये स्थिति तत्काल सरकारी कार्रवाई और सभी सामाजिक क्षेत्रों की सहभागिता की मांग करती है । लेकिन यह मायने रखता है कि यह कैसे किया जाता है, और यह कम महत्वपूर्ण नहीं है कि इन हस्तक्षेपों का क्या परिणाम होगा । सवाल यह है कि क्या कई सरकारों द्वारा लिए गए आपात उपायों को संकट के कम होने के बाद तेज़ी से वापस लिया जाएगा-या क्या ये उपाय राज्य की शक्ति और नागरिक अधिकारों के बीच तथा कार्यपालिका और सरकार की विधायक शाखाओं के बीच के संतुलन को स्थायी रूप से परेशान करेंगे ।
यदि अतीत को मार्ग-दर्शक मानें, तो हमें राष्ट्रवादी प्रतिक्रिया के लिए खुद को तैयार करना होगा । दक्षिणपंथी सत्तावादी और लोकवादी ताक़तें आर्थिक मंदी के कारण पैदा हुई राजनीतिक चिंताओं का फायदा उठाने की कोशिश करेंगी । यह कॉविड -19 को "अन्य" ( जैसे अजनबी, विदेशी, या बाहरी खतरेा) से जोड़कर नई भेदभाव-पूर्ण सीमा व्यवस्थाओं को लागू करके "फिर से प्रादेशिक " राष्ट्र-राज्यों की मांग कर सकती हैं। एक मौलिक अंतरराष्ट्रीय संकट के समय इस तरह की एक राष्ट्रवादी प्रतिक्रिया से राष्ट्रों के बीच का विभाजन केवल गहरा होगा । जर्मन समाजशास्त्री उल्रिच बेक ने एक बार वैश्वीकृत दुनिया में " जोखिमपूर्ण समाज" का उल्लेख किया था- (जिसमें महामारी, जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, परमाणु दुर्घटनाएँ आदि शामिल हैं) - जो सीमाओं या अन्य संप्रभु सीमांकनों का सम्मान नहीं करता । इस तरह की जोखिमपूर्ण परिस्तिथियाँ इस अर्थ में "लोकतांत्रिक" हैं कि पूरी मानवता को इनका सामना करना पड़ता है, भले ही वो असमान तरीके से क्यों ना हो । बुनियादी ढांचे की कमी और "सामाजिक जोखिम प्रबंधकों" को वहन करने में असमर्थता के चलते, गरीब देश अमीर देशों की तुलना में महामारी से अधिक प्रभावित हो सकते हैं । ग्लोबल साउथ में इसके फलस्वरूप आवाजाही की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाये जा सकते हैं, साथ ही निर्यात बाज़ार पर भी ; वित्तीय संसाधनों तक पहुँच सीमित होने की सम्भावना भी है। ग्लोबल नॉर्थ के कुछ देशों में महामारी से होने वाली मौतों में पहले से ही वर्ग और नसल पर आधारित पैटर्न देखने को मिल रहे हैं, क्योंकि बेहतर वर्ग के लोग काम और घर दोनों जगह खुद को सामाजिक संपर्क से अधिक सुरक्षित रख सकते हैं। दूसरे शब्दों में, कोरोनावायरस के खिलाफ लड़ाई को सामाजिक असमानताओं के खिलाफ वैश्विक और स्थानीय संघर्ष से अलग नहीं किया जा सकता । इसमें शामिल है सामाजिक जोखिमों को पुनर्वितरित करके उन्हें सबसे कमज़ोर राज्यों और समुदायों पर स्थानांतरित करने के प्रयासों का मुकाबला करना । वास्तव में, यदि एक बात है जो महामारी ने सिद्ध करी है, वो यह है कि मानव स्थिति की कमज़ोरी सार्वभौमिक है-राष्ट्रीय संप्रभु क्षेत्रों के रूप में "कल्पित समुदायों" तक ही सीमित नहीं है ।
मौजूदा संकट पहले से ही कई हानिकारक राजनीतिक और सामाजिक प्रथाओं को प्रोत्साहित कर रहा है । सेक्सिस्ट नीतियों को अपनाया गया है, जिसमें गर्भावस्था समापन को प्रतिबंधित करने के प्रयास शामिल हैं - इसे गैर-ज़रूरी कार्यवाही घोषित करके। हिंसक पोर्नोग्राफी की मांग बढ़ी है, जो मुफ्त सामग्री की पेशकश करके – पोर्नोग्राफर प्रोत्साहित कर रहे हैं। महामारी के जवाब में लिये गए एकांत में रहने के उपायों से घरेलू हिंसा में वृद्धि हुई है, जबकि पुलिस और बाल संरक्षण सेवाओं को रिपोर्ट किए गए मुद्दों में भारी गिरावट आई है । वायरस फैलने की शुरुआत में, नस्लवाद और विद्वेष में वृद्धि मुख्य रूप से एशियाई मूल के लोगों के प्रति दिखाई दे रहे थे । लेकिन बॉर्डर लॉकडाउन और अन्य अतिवादी उपाय दुनिया भर के सभी प्रवासियों और जातीय और अल्पसंख्यक समूहों के लिए खतरा पैदा करते हैं । आज, द्वितीय विश्व युद्ध (वर्ल्ड वॉर 2) के बाद शरणार्थियों और शरण चाहने वालों की सुरक्षा के लिए किये गए प्रयासों के कमज़ोर होने का वास्तविक खतरा है । अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार क़ानूनों का समर्थन करना - जो गैर-भेदभाव के मूल्यों पर आधारित हैं - आज और भी अधिक महत्वपूर्ण है, बाहरी लोगों को बाहर रखने पर प्रलोभित राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रति-कार के रूप में ।
सवाल यह है कि यह संकट हमारे लोकतंत्रों के लिए क्या करेगा । कठोर उपायों ने कम से कम कुछ स्वस्थ प्रणालियों वाले देशों पर दबाव कम किया है, और महामारी से होने वाली मौतों को कम कर दिया है । चाहे अनिच्छा से ही, पर लोकतांत्रिक नेता तेजी से संकट को रोकने के प्रयासों को स्वास्थ्य विशेषज्ञों को सौंप रहे हैं, भले ही कुछ अभी भी राजनीति खेल रहे हैं। बेशक, इस बात पर सवाल खड़े होना ज़ाहिरी बात है कि जब विशेषज्ञ “अंदर बंद रहने” या “दूरी बनाये रखने” की सलाह देते हैं या जब निहित आर्थिक हित सरकारों से मांग करते हैं, तो अधिकारियों को कितनी हद तक इन सलाहों और मांगों को मानना चाहिये। लेकिन एक बार फिर कॉविड महामारी ने ये प्रदर्शित किया है कि सार्वभौमिक स्वास्थ्य व्यवस्था और मजबूत कल्याणकारी प्रणालियां न केवल सामाजिक न्याय, बल्कि ठीक से कार्य करने वाले समाजों के भी आवश्यक तत्व हैं । हालांकि, कमजोर समूहों को लक्षित करने और विशिष्टतावादी राष्ट्रवादी विचारों का समर्थन करने के लिए, वायरस के बारे में प्रसारित होने वाली गलत सूचनाएँ अभी भी नहीं रुकी हैं।
आपात-काल के इस समय में, अपने प्रतिगामी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए संकट का उपयोग करने पर आमादा इस सत्तावादी और लोकवादी दक्षिणपंथी विचारधारा के खिलाफ, हमें तत्काल, प्रगतिशील ताक़तों के बीच वैश्विक एकजुटता और सहयोग बनाने की आवश्यकता है। एक प्रगतिशील अंतरराष्ट्रीय संगठन आंदोलनों का निर्माण करने, नीतियाँ बनाने और बहुत आवश्यक सामाजिक परिवर्तनों के बारे में विचारों का आदान-प्रदान करने के लिए मंच प्रदान करता है। इसी कारण से, आइसलैंडिक लेफ्ट ग्रीन मूवमेंट इसमें भाग ले रहा है। कार्य करने का - इतिहास बनाने का – यदि कभी कोई समय था तो वह अब है।